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________________ भक्तामर की पद्यसंख्या ३५ नहीं, ऐसे चार-चार (या पांच-पांच) प्रकार के पद्य-गुच्छक भी बन जायें । असल में दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वद् मुनियों, वर्णियों, भट्टारकों के सामने भी ४४ पद्यों वाली ही मूल कृति थी, और उसको प्रातिहार्यों के विषय में अपूर्ण मानकर पूर्ण करने के अनेक भिन्न-भिन्न प्रयत्न अलग-अलग देशकाल में हुए । जब “गम्भीरतार" वाला गुच्छक विशेष प्रचार में आ गया तो और गुच्छकों को फेंक देने के बजाय पश्चात्कालीन पृथक्-पृथक् प्रतियों में उनको भी कहीं न कहीं विशेष पद्यों के रूप में संगृहीत करके रख लिया गया, जिससे कुछ प्रतियों में पद्य संख्या ५२ बन गई ।। श्वेताम्बर विद्वानों में अगरचंद नाहटा की मान्यता में भी भक्तामरस्तोत्र के मौलिक पद्य ४४ ही थे, और चार-चार पद्य वाले गुच्छक, जो दिगम्बर स्तोत्रों में पाये जाते हैं, उनको वे असली नहीं मानते थे । इस पर टिप्पण करते हुए ज्योतिप्रसादजी ने लिखा है : “उपरोक्त सन्दर्भ में उल्लिखित सभी विद्वानों ने भक्तामर की श्लोक संख्या पर विचार किया है । जब कि श्री अगरचन्द नाहटा का आग्रह है कि श्वेताम्बर परम्परा सम्मत ४४ श्लोकी पाठ ही मूल एवं प्राचीनतम पाठ है । अन्य सब विद्वानों ने दिगम्बर परम्परा सम्मत ४८ श्लोकी पाठ को ही मूल एवं प्राचीनतम सिद्ध किया है, जिसके लिए उन्होंने प्रमाण एवं युक्ति का सफल प्रयोग किया है और प्रतिपक्ष द्वारा प्रस्तुत हेतुओं को निस्सार ठहराया है । स्वयं हमने भी अन्यत्र इस समस्या पर विचार किया है ।" ___ज्योतिप्रसादजी जो “अन्य सब विद्वानों' का उल्लेख करते हैं वे “सभी'' दिगम्बर सम्प्रदाय के ही विद्वान् थे । ये हैं पं० अजितकुमार जैन शास्त्री, श्रीमान् रतनलाल कटारिया, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, एवं पं० अमृतलाल शास्त्री । इन मनीषियों के मंतव्यों की, उनकी दी गई युक्तियों की, हम ऊपर सोद्धरण समीक्षा कर चुके हैं । उनमें इस विषय को लेकर “प्रमाण और युक्ति का सफल प्रयोग' तो एक तरफ रहा, वहाँ कहीं भी न है तर्कबद्ध अभिगम, न पूर्णरूपेण परीक्षण; न विशद पृथक्करण, न संतुलित प्रस्तुतिकरण । उनमें से किसी ने पूरे स्रोत भी नहीं देखे हैं, न है उनकी दलीलों में वज़न या वजूद ! अजितकुमार जैन जिन अज्ञात श्वेताम्बर लोगों से लड़ रहे थे और उनकी “युक्तिओं" को नि:सार ठहरा रहे थे, वे न तो युक्तियाँ थी न ही वे बातें प्रमाणपूत थी । इन विद्वानों में से किसी ने प्रचलित ४ अतिरिक्त पद्य वाले पाठ की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए प्राचीन प्रतियाँ पेश नहीं की हैं, न ही उनमें से लिया गया प्राचीन उद्धरण का प्रमाणरूपेण कोई दाखला दिखाया । अपने-अपने मन से खुलासा करके, अपने को सही मनवा के, और श्वेताम्बर पाठ के ४४ पद्य के अस्तित्व पर तरह-तरह का इल्जाम लगा के उसको केवल गुनहगार ही ठहराते रहे हैं । श्वेताम्बर पाठ में ४४ पद्य क्यों हैं ? इस पर संप्रीति, समादर या सहिष्णुता से विचार भले. न करें यह बात अपेक्षित नहीं थी, न उनके लिए सम्भवित था-पर गम्भीरता से सोचना तो ज़रूरी था ही । इसकी उपेक्षा तथ्यान्वेषण का लक्षण तथा गवेषकवृत्ति की प्रकाशक नहीं है । इस पूरे ही उद्यम में ताटस्थ्य और सज्जता का अभाव ही दिखलाई देता है । अल्प मेहनत और आसानी से तैयार किया हुआ लेखन हो, ऐसा ही आभास इन सब में उठ आता है । दूसरी ओर देखा जाय तो ज्योतिप्रसादजीने पं० दुर्गाप्रसाद शास्त्री और पुणसिकर (तथा द्वितीय आवृत्ति के) पाण्डुरङ्ग काशीनाथ शर्मा जैसे जैनेतर विद्वान् और डा० हीरालाल कापडिया जैसे श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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