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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
नहीं, दो प्रकार के गुच्छक मिलते हैं । उनको तो मतलब मन्त्रतन्त्राम्नाय सहित के “४८” पद्यों से ही था, और वह पूरा हो जाय तो इतना पर्याप्त था । गुच्छक भले कोई भी हों, चल सकता था । ऐसी युक्तियों से तो प्राचीन काल में श्वेताम्बर पाठ में भी भक्तामर के ४८ ही पद्य थे, ऐसा उनका कहना ज़रा भी समीचीन सिद्ध नहीं होता । इससे तो केवल उनका मंत्र-तंत्र पर रहा लाजवाब आदर एवं प्यार का ही सबूत मिलता है ।
दिगम्बर-मान्य पाठ में “गम्भीरतार०' वाले ४ अतिरिक्त पद्यों की विशेष मान्यता है, पर वह भी असली है कि नहीं यह मुद्दा परीक्षा-पात्र है । यद्यपि उन्होंने कुछ विवरण नहीं दिया फिर भी दुर्गाप्रसाद शास्त्री (और उनके सहयोगी वासुदेव लक्ष्मण शास्त्री पुणसिकर) की इस विषय पर राय कुछ ऐसी रही है कि वे नकली हैं । उनका निष्कर्ष रहा कि “गम्भीरेत्यादि चत्वारि पद्यानि तु केचन पण्डितमन्येन निर्माय मणिमालायां काचशकलानीव मानतुङ्गकवितायां प्रवेशितानि इत्यपि तद्विलोकनमात्रेणैव कवित्वमर्म विद्भिर्विद्वद्भिर्वोढुं शक्यते ।"२३ कापड़िया जी ने भी अपनी संस्कृत प्रस्तावना में शास्त्री जी का उपर्युक्त अभिप्राय उद्धृत किया है, और कहा है कि “अनेन सूच्यते चेतत्पद्यप्रक्षेप इति ।' २४ आश्चर्य है, डा० ज्योतिप्रसाद जैन ने इन अभिप्रायों को ध्यान में लिया ही नहीं।
ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भक्तामरस्तोत्र का प्रचार हो जाने के पश्चात् वहाँ स्तोत्र में पूरे आठ प्रातिहार्य होना चाहिए ऐसा समझकर चार प्रतिहार्यों की कमी पूरी करने का पृथक्-पृथक् चार, और एक दूसरे से अनभिज्ञ, प्रयत्न प्राय: १४वीं-१५वीं शती में हुए । तात्पर्य यह कि वहाँ भी मूल स्तोत्र में चार ही प्रातिहार्यों से सम्बद्ध पद्य थे और इसलिए सब मिलकर ४४ ही ।
इस अनुलक्ष में अब हम दिगम्बर मनीषियों के कुछ और विचारों की समीक्षा करने की स्थिति में आ गये हैं । इस सन्दर्भ में पहले डा० नेमिचन्द्र का अवलोकन प्रस्तुत करेंगे । उनके अनुसार "मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की । दोनों सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार इसे अपनाया । आरम्भ में इस स्तोत्र में ४८ काव्य-पद्य थे । प्रत्येक पद्य में काव्यत्व रहने के कारण ही ४८ पद्यों को ४८ काव्य कहा गया है । इन ४८ पद्यों में से श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अशोकवृक्ष, सिंहासन, छत्र और चामर इन चार प्रातिहार्यों के निरूपक पद्यों को ग्रहण किया तथा दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल और दिव्यध्वनि इन चार पद्यों को निकाल कर इस स्तोत्र में ४४ पद्य ही माने । इधर दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहार्यों के बोधक चार नये पद्य और जोड़कर पद्य की संख्या पूरी गढ़ ली गई ।' २५ "भागलपुर वीर नि० सं० २४९० में प्रकाशित हुआ है; वृष्टिवि: सुमनसां परित: प्रयात (३५), दुष्णामनुष्य सहसामपि कोटिसंख्या (३७), देव त्वदीयसकलामल केवलीव (३९) पद्य अधिक मुद्रित हैं । वस्तुत: इस स्तोत्र-काव्य में ४८ ही मूल पद्य हैं ।' २६ पहली तो यह बात समझ में नहीं आती कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय प्रातिहार्य निरूपक चार विशेष पद्य यदि मूल में थे तो निकाल क्यों दें ? और जब दिगम्बर सम्प्रदाय में मूल ४८ पद्य थे ही तो वे श्वेताम्बरों द्वारा हटा दिये गये ४ पद्य के स्थान पर नये गढ़ कर अपनी प्रतियों में ४८ के स्थान पर ५२ क्यों कर दें ? ऐसी चेष्टा किस फ़र्ज़ को लेकर, कौन सी पूर्ति करने के लिए की गई थी ? और एक
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