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भक्तामर की पद्यसंख्या
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थी उनमें भी ४४ पद्य होंगे । उनको खुद ही स्तोत्र में आठ की जगह चार ही प्रातिहार्यों की घटना से सम्बद्ध समाधान प्रस्तुत करना पड़ा था । यथा : “अत्र प्रातिहार्य-प्रस्तावना प्रस्तावेऽनुक्त अपि पुष्पवृष्टिदिव्यध्वनि-भामण्डल-दुन्दुभयस्वधियाऽवतार्याः एतत् सर्वं यत्राशोकतरोः प्रादुर्भावस्तत्र स्याद् देशनाक्षणे । अशोकतरू सहचरितत्वात् पृथग् नाहता: कविना ।२" यह समाधान कुछ बुद्धिपूर्वक तो किया गया है फिर भी समीचीन प्रतीत नहीं होता । उधर गुणाकर सूरि से ९३ वर्ष पूर्व प्रभाचन्द्राचार्य के पास भी ४४ पद्यों वाली प्रतियाँ थीं, और उनके समय से भी पचास-सौ साल पूर्व की जितनी ताड़पत्रीय पोथियाँ इस समय उपलब्ध हैं, इन सब में भी ४४ पद्य ही हैं । और यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि इन पुरानी प्रतियों के लिपिकारों के सामने अपने समय से पूर्व की आदर्श रूप प्रतियों में ४४ ही पद्य रहे होंगे । तभी तो उन सभी की नकलों में ४४ पद्य ही दिखाई देते हैं । इस हकीकत को देखकर गुणाकर सूरि की वृत्ति के बाद ही श्वेताम्बर पाठ में असल के आठ की जगह चार प्रातिहार्य हो गये, ऐसा साराभाई का कथन कत्तई सही नहीं है ।
अब रही मन्त्राम्नाय वाले हरिभद्रसूरि की बात । उस अभिधानधारी कोई मुनि दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं हुए, इस तथ्य का कोई विरोध नहीं । साराभाई ने तीन हरिभद्र सूरियों का निर्देश दिया है । पर वस्तुतया करीब सात सूरिवर इस नाम के हुए हैं । पहले याकिनीसूनु (कर्मकाल प्राय: ईस्वी ७४५७८५) जो आदिम हरिभद्र सूरि रहे । दूसरे थे चन्द्रगच्छ के देवेन्द्रसूरि (प्राय: ईस्वी १२४२) के सप्तम पूर्वज, जिनका समय ईस्वी ११वीं शती का मध्यभाग या अन्तिम चरण रहा होगा । तीसरे थे बृहद्गच्छीय जिनदेवशिष्य हरिभद्र, जिन्होंने ईस्वी १११६ में बंधस्वामीत्व और षडशीति पर टीका, और ई० स० ११२९ में उमास्वाति के प्रशमरतिप्रकरण पर वृत्ति लिखी थी । चौथे हरिभद्र बृहद्गच्छीय श्रीचन्द्र के शिष्य थे । सोलंकी सम्राट् कुमारपाल ई० स० (११४४-११७३) के मन्त्री पृथ्वीपाल के वे गुरु रहे, और उन्होंने तीर्थंकरों के प्राकृत एवं अपभ्रंश में चरितों की रचना की थी । पाँचवें हरिभद्र उनकी अमोघ देशना के कारण 'कलिकालगौतम' कहे जाते थे । मन्त्रीश्वर वस्तुपाल के कुलगुरु नागेन्द्रगच्छीय विजयसेन सूरि के वे गुरु रहे, जो ईस्वी १२वीं शती के आखिरी चरण में विद्यमान थे । छठे हरिभद्र वस्तुपाल मन्त्री के विद्यामण्डल के चन्द्रगच्छीय बालचन्द्र सूरि के गुरु थे, जिनका समय ईस्वी १२वीं-१३वीं शती है और सातवें हरिभद्र बृहद्गच्छ में ईस्वी १३वीं शताब्दी के अन्तभाग और १४वीं के प्रारभ में हुए थे । हम नहीं समझते कि इनमें से किसी भी हरिभद्र ने भक्तामरस्तोत्र के मन्त्राम्नाय को बनाया हो । मन्त्रतन्त्राम्नाय वाली सभी पोथियाँ ४८ पद्य वाली एवं उत्तरमध्यकालीन हैं । इसकी एक भी प्राचीन हस्तप्रति नहीं मिली है । इसके अलावा इनमें सभी ४८ यन्त्र वही हैं जो दिगम्बर मान्त्रिक पोथियों में मिलते हैं । यदि ऐसी मन्त्रतन्त्रपूत प्राचीन रचनाएँ अपने सम्प्रदाय में होती तो अनेकों में से किसी न किसी श्वेताम्बर भक्तामरटीकाकार ने उसका उल्लेख किया ही होता । दरअसल पश्चात्कालीन दिगम्बर पोथियों की नकल करके, और हरिभद्र का नाम उसके संग जोड़कर उसको प्रमाणभूत मनवाने की करामात मात्र यहाँ दिखाई देती है । गुणाकरसूरि ने अपने समय में प्रचलित केवल १८ ही मन्त्राम्नाय दिया है, ४४ नहीं । ताज्जुबी की बात तो यह है कि साराभाई को इस बात की परवाह ही नहीं है कि हरिभद्र के नाम पर चढ़ाई हुई, या अन्यथा, यन्त्रोंवाली प्रतियों में अतिरिक्त ४ प्रतिहार्यो के एक
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