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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
"दिव्यो ध्वनिर्ध्वनितदिग्वलयस्तवार्हन् !,
व्याख्यातुरुत्सुकयतेऽत्र शिवाध्वनीयाम् । तत्त्वार्थदेशनविधौ ननु सर्वजन्तुं,
भाषाविशेषमधुरः सुरसार्थपेय: ।।३।। पुणे स्थित भंडारकर प्राच्य विद्या शोध-संस्थान में संरक्षित एक प्रति में “मानतुंगीय काव्य चतुष्टयी' के नाम से वही चार पद्य हैं परन्तु इसमें तीसरे पद्य का पाठ कापड़िया जी के दिये हुए पाठ के सदृश है९ ।
इस सिलसिले में अब श्वेताम्बर विद्वानों में से साराभाई नवाब का कुछ और मंतव्य यहाँ उपस्थित करना उपयुक्त होगा । “४८ पद्यों की मान्यता श्वेताम्बरों में भी पहले थी और यदि ऐसा न होता तो प्रस्तुत ग्रन्थ (महाप्रभाविक नवस्मरण) में दिये हुए श्री हरिभद्रसूरि कृत यंत्रों की संख्या ४४ ही होनी चाहिए थी, इसलिए हमें ऐसा मानने के लिए कारण मिलता है कि भक्तामर के ४८ श्लोकों पर अलग-अलग ४८ यंत्रों तथा तंत्रों के रचयिता श्री हरिभद्रसूरि के समय में तो भक्तामर के श्लोकों की संख्या ४८, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित थी क्योंकि चतुर्थ स्मरण “तिजयपहुत" की स्तोत्रानुकृति के रचयिता हरिभद्रसूरि सम्बन्धी चर्चा करते हुए मैंने जो तीन हरिभद्रसूरि का उल्लेख किया है वे तीनों श्वेताम्बराचार्य ही थे, और दिगम्बरों में उस नाम के कोई आचार्य हुए ऐसा उल्लेख भी नहीं मिलता, अब प्रश्न यह होता है कि इन यन्त्रों तथा तन्त्रों के रचयिता कौनसा हरिभद्रसूरि होना चाहिए ? मेरी मान्यतानुसार तो ऊपर उल्लिखित तीन में से दूसरे या तीसरे हरिभद्रसूरि की ही रची हुई ये यंत्र कृतियाँ तथा तन्त्र वगैरह होने चाहिए ।"२० साराभाई प्रचलित “ गम्भीरतार० " वाले चार अतिरिक्त पद्यों के स्थान पर “विष्वग्विभोः सुमनस:" से लेकर शुरू होने वाले चार वैकल्पिक पद्यों को पेश करके आगे लिखते हैं कि “फ़िर जैन श्वेताम्बर भण्डारों में रही हुई यन्त्रोंवाली करीब सौ से अधिक हस्तलिखित प्रतियाँ मैंने तलाशी हैं, उन सब प्रतियों में ४८ गाथाएँ और सम्बन्धित ४८ ही यन्त्र मिलते हैं । इन ४८ यंत्रों के सिवा दूसरी ४४ यन्त्रों वाली कोई भी प्रति श्वेताम्बर भण्डार में मेरे देखने में अथवा सुनने में भी नहीं आई और ऋद्धि के पद भी ४८ ही हैं, इसलिए यन्त्र भी ४८ और काव्य भी ४८ ही होने चाहिए । चार काव्य गम्भीरतार० से शुरू होता हो या विष्वग्विभो० से शुरू होता हो या तीसरा हो इस बात में आपत्ति नहीं; इसलिए मेरी मान्यतानुसार तो भक्तामर के प्राचीन टीकाकार श्री गुणाकर सूरि के पश्चात् अर्थात् वि० सं० १४२६ के बाद से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भक्तामर के ४४ पद्य होने की मान्यता शुरू हुई थी, वह निश्चित करना बहुत मुश्किल है, कारण कि उनकी टीका ४४ श्लोकों पर रची हुई है
और बाद के भक्तामर पादपूर्ति काव्य भी मोटे तौर पर ४४ ही श्लोकों पर रचे हुए हैं । जो कुछ भी हो, दोनों मान्यताएँ प्राचीन हैं और दोनों प्रकार के अड़तालीस काव्यों पर यन्त्रों के मिलने से मैं ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में अड़तालीस ही पद्य देना उचित समझकर अड़तालिस पद्य छपवाये हैं ।" ।
साराभाई नवाब के इस कथन में अनेक विप्रतिपत्तियाँ हैं, और कुछ तो काफ़ी हद तक आपत्तिजनक भी । पहली बात यह कि गुणाकर सूरि के सामने ईस्वी १३७० में जो भक्तामर की प्रतियाँ
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