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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
यः संस्तुवे गुणभृतां सुमनो विभाति, यः तस्करा विलयतां विबुधा: स्तुवन्ति । आनंदकन्द हृदयाम्बुजकोशदेशे,
भव्या व्रजन्ति किल याऽमरदेवताभिः ।।१।।
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इत्थं जिनेश्वर सुकीतयतां जिनोति, न्यायेन राजसुखवस्तुगुणा स्तुवन्ति । प्रारम्भभार भवतो अपरापरां या,
सा साक्षणी शुभवशो प्रणमामि भक्त्या ।।२।।
नानाविधं प्रभुगुणं गुणरत्न गुण्या,
रामा रमंति सुरसुन्दर सौम्यमूर्तिः । धर्मार्थकाम मनुयो गिरिहेमरत्नाः, उध्यापदो प्रभुगुणं विभवं भवन्तु ।।३।।
कर्णो स्तुवेन नभवानभवत्यधीशः,
यस्य स्वयं सुरगुरु प्रणतोसि भक्त्या । शर्मार्धनोक यशसा मुनिपद्मरंगा,
मायागतो जिनपतिः प्रथमो जिनेश: ।।४।। "
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इसकी संक्षिप्त समीक्षा में विद्ववर्य ने कहा " पर ये भी मूल ग्रन्थकार कृत नहीं हैं क्योंकि भक्तामर स्तोत्र के पठन का फल बताकर स्तोत्र को वहीं समाप्त कर दिया है अतः यह अतिरिक्त श्लोक किसी ने बाद में बनाये हैं, इनकी रचना भी ठीक नहीं है और अर्थ भी सुसंगत नहीं है ।" १५
श्रीमान् कटारिया आगे चलकर कहते हैं कि, “ इनके सिवा भी हमारे पास के १ गुटके में ४ श्लोक और पाये जाते हैं जिन्हें बीज काव्य लिखा है इनकी भी स्थिति उपरोक्त ही है वे भी मूल स्तोत्रकार कृत नहीं । वे चार पद्य इस प्रकार हैं -
बीजकं काव्यम् :
ओं आदिनाथ अर्हन्सुकुलेवतंसः, श्रीनाभिराज निजवंश शशिप्रतापः । इक्ष्वाकुवंश रिपुमर्दन श्रीविभोगी,
शाखा कलापकलितो शिव शुद्धमार्गः ।।१।।
कष्ट प्रणाश दुरिताप समांवनाहिअंनिधौ दुखय तारक विघ्नहर्ता ।
दुखाविनारि भय भनति लोह कष्टंतालोर्द्धघाट भयभीत समुत्कलापाः । । २ ।।
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