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भक्तामर की पद्यसंख्या
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सबसे पहले पं० अजितकुमार जैन को मिले हुए ऐसे चार पद्यों को यहाँ पेश करेंगे ।
नात: पर: परमवचोभिधेयो,
लोकत्रयेऽपि सकलार्थविदस्ति सार्वः । उच्चरितीव भवतः परिघोषयन्त
स्ते दुर्गभीरसुरदुन्दुभयः सभायाम् ।।१।। वृष्टिर्दिवः सुमनसां परित: पपात,
प्रीतिप्रदा सुमनसां च मधुव्रतानाम् । राजीवसा सुमनसा सुकुमारसारा,
सामोदसम्पदमदाजिन ते सुदृश्य: ।।२।। पूष्मामनुष्य सहसामपि कोटिसंख्या__ भाजां प्रभाः प्रसरमन्वहया वहन्ति । अन्तस्तम:पटलभेदमशक्तिहीनं,
जैनी तनुद्युतिरशेषतमोऽपि हन्ति ।।३।। देव त्वदीय सकलामलकेवलाय,
बोधातिगाधनिरुपप्लवरत्नराशेः । घोषः स एव इति सजनतानुमेते,
गम्भीरभारभरितं तव दिव्यघोष: ।।४।। इस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है : “इन श्लोकों के विषय में यदि क्षणभर विचार किया जाय तो चारों श्लोक भक्तामर स्तोत्र के लिए व्यर्थ ठहरते हैं; क्योंकि इन श्लोकों में क्रमश: दुन्दुभि, पुष्पवर्षा, भामंडल तथा दिव्यध्वनि इन चार प्रातिहार्यों को रखा गया हैं और ये चारों प्रातिहार्य इन श्लोकों के बिना ४८ श्लोक वाले भक्तामर स्तोत्र में ठीक उसी ३२-३३-३४-३५ वीं संख्या के पद्यों में यथाक्रम विद्यमान हैं । अत: ये चारों श्लोक भक्तामर स्तोत्र के लिए पुनरुक्ति के रूप में व्यर्थ ठहरते हैं; इनकी कविता-शैली भी भक्तामर स्तोत्र की कविता-शैली के साथ मेल नहीं खाती । अत: ५२ श्लोक वाले भक्तामर स्तोत्र की कल्पना नि:सार है और न अभी तक किसी विद्वान् ने इसका समर्थन ही किया है१२ ।"
पं० अजितकुमार के दिये हुए उपर्युक्त चार पद्यों को अपने लेख में उद्धृत करके कटारिया महाशय इन पर अपनी टिप्पणी करते हुए इस प्रकार लिखते हैं - “किन्तु इन श्लोकों में भी प्रातिहार्य का वर्णन होने से ये पुनरुक्त हैं और असंगत हैं१३ ।” आगे चलकर वे ऐसे कुछ और गुच्छक दिगम्बर स्रोतों में से उद्धृत करते हैं । " "जैन मित्र'' फाल्गुन सुदी ६ वीर सं० २४८६ के अंक में भी इनसे भिन्न चार श्लोक छपे हैं । हमारे पास के १-२ गुटकों में भी ये ४ श्लोक हैं ।
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