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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
का वास्तविकता से कोई मेल नहीं । भक्तामर के किसी वृत्तिकार ने ऐसा नहीं बताया है । यह बात बिलकुल ही मान्य नहीं हो सकती है ।
इस विषय में पं० अजयकुमार जैन शास्त्री ने जो कुछ और कहा है, यहाँ प्रस्तुत करके उस पर गौर करेंगे । उनका कहना है कि “श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कल्याणमन्दिरस्तोत्र तो दिगम्बर सम्प्रदाय के समान ४४ श्लोकों वाला ही माना जाता है किन्तु भक्तामरस्तोत्र को श्वेताम्बर सम्प्रदाय, ४८ श्लोकों वाला न मानकर ४४ श्लोकों वाला ही मानता है । ३२-३३-३४-३५ नंबर के चार पद्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने भक्तामरस्तोत्र में से निकाल दिए हैं । इसीसे प्रचलित भक्तामरस्तोत्र साम्प्रदायिक भेद से दो रूप में पाया जाता है ।
भक्तामरस्तोत्रमें दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यतानुसार ४८ श्लोक ही क्यों नहीं हैं ? इसका उत्तर तीन प्रकार से प्राप्त होता है । एक तो यह कि जब कल्याणमन्दिरस्तोत्र ४४ श्लोकों का है तब उसकी जोड़का भक्तामर स्तोत्र भी ४४ श्लोकों का होना चाहिए वह ४८ श्लोकों का कैसे हो ?
दूसरे, भरतक्षेत्र के २४ तीर्थंकर और विदेह क्षेत्रों के २० वर्तमान तीर्थंकरों की कुल संख्या ४४ हुई, इस संख्या के अनुसार भक्तामरस्तोत्र के श्लोकों की संख्या भी ४४ होनी चाहिये ।
तीसरे, श्वेताम्बर जैन गुरुकुलके एक स्नातकसे यह उत्तर प्राप्त हुआ कि भक्तामर स्तोत्र क मंत्रशक्ति से पूर्ण स्तोत्र है । उसके मंत्रों को सिद्ध करके मनुष्य उन मंत्रों के अधीन देवों को बुला बुला कर तंग करते थे । देवोंने अपनी व्यथा मानतुंगाचार्य को सुनाई कि, महाराज ! आपने भक्तामर स्तोत्र बनाकर हमारी अच्छी आफ़त ले डाली । मंत्रसिद्ध करके लोग हमें चैनसे नहीं बैठने देते हर समय मंत्रशक्ति से बुलाबुलाकर हमें परेशान करते रहते हैं । मानतुंगाचार्यने देवों पर दया करके भक्तामरस्तोत्र में से चार श्लोक निकाल दिये । अतः भक्तामर ४४ श्लोकोंवाला ही होना चाहिये ।
यदि इन समाधानों पर विचार किया जाय तो तीनों ही समाधान निःसार जान पड़ते हैं । मानतुंगाचार्य और कुमुदचन्द्राचार्य का आपस में कोई समझौता नहीं था कि हम दोनों एक-सी ही संख्या के स्तोत्र बनायें । हरएक कवि अपने अपने स्तोत्र की पद्य - संख्या रखने में स्वतंत्र है । दूसरे मानतुंगाचार्य कुमुदचन्द्राचार्य से बहुत पहले हुए । अतः पहली बात के अनुसार भक्तामर के श्लोकों की संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती ।
दूसरा समाधान भी उपहासजनक है । भिन्न भिन्न दृष्टि से तीर्थंकरों की संख्या २४-४८-७२ आदि अनेक बतलाई जा सकती है । भरतक्षेत्र के २४ तीर्थंकर हैं तो उनके साथ समस्त विदेह के २० तीर्थंकर ही क्यों मिलाये जाते हैं ? ऐरावतक्षेत्र के २४ तीर्थंकर या ढाई - द्वीप के समस्त भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों की संख्या क्यों नहीं ली जाती ? तीर्थंकरोंकी संख्या के अनुसार स्तोत्रों की पद्य संख्या का ही मानना नितान्त भोलापन है और वह दूसरे स्तोत्रों की पद्य - संख्या को दूषित कर देगा । अतः दूसरी बात भी व्यर्थ है ।
अब रही तीसरी बात, उसमें भी कोई सार प्रतीत नहीं होता क्योंकि भक्तामरस्तोत्र का प्रत्येक
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