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भक्तामर की पद्यसंख्या
श्लोक जब मंत्र-शक्ति से पूर्ण है और प्रत्येक श्लोक मंत्र रूप से कार्य में लिया जा सकता है । तब देवों का संकट हटाने के लिए मानतुंगाचार्य सिर्फ चार श्लोकों को ही क्यों हटाते ? सबको क्यों नहीं? क्योंकि यदि सचमुच ही भक्तामरस्तोत्र के मंत्राराधन से देव तंग होते थे और मानतुंगाचार्य को उन पर दया करना इष्ट था तो उन्होंने शेष ४४ श्लोकों को देवों की विपत्ति के लिए क्यों छोड़ दिया ? इसका कोई समुचित उत्तर नहीं हो सकता ।
अत: इन समाधानों से तो भक्तामरस्तोत्र के श्लोकोंकी संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती''१०
अजयकुमार जैन शास्त्री को श्वेताम्बर से जो तीन उत्तर मिले थे उसमें तीसरा तो किसी गुरुकुल के लड़के ने मौखिक दिया था, और पहले दो का कोई आधार उन्होंने उट्टंकित नहीं किया है । उनमें से पहला तो कहीं सुनने में नहीं आया । पहली बात तो यह कि कल्याणमन्दिर के आधार पर भक्तामर नहीं, भक्तामर के आधार पर कल्याणमन्दिरस्तोत्र बन सकता है, बना है । पद्य संख्या में भी यदि अनुकरण हुआ हो तो वह मध्यकाल में होने वाले कुमुदचन्द्राचार्य द्वारा प्राचीन मानतुंग की रचना को लेकर, न कि उससे विरुद्ध प्राचीन मानतुंग के द्वारा मध्यकालीन कुमुदचन्द्राचार्य का ! इसमें मानतुंगाचार्य और कुमुदचन्द्राचार्य का समकालीन होना आवश्यक नहीं है । अनुकरण कभी भी बाद में हो सकता है । हेमचन्द्राचार्य ने १२ वीं शताब्दी में सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र का अनुकरण अपनी द्वात्रिंशिकाओं में किया है, और ऐसा करने में उनका इन दोनों प्राचीन स्तुतिकारों से “समझौता' करने की ज़रूरत नहीं थी, न वह कर सकते थे । दूसरे उत्तर के बारे में हम पीछे कह चुके हैं । अन्तर इतना है कि हम इसको (और उसके संग ही पहले वाले उत्तर को), अजितकुमार जी की तरह, 'उपहासजनक' कहना ठीक नहीं समझते । इन अज्ञानमूलक बातों को दयनीय कहना अधिक संगत होगा । अब रही तीसरे उत्तर की बात । श्वेताम्बर जब से आगमों की अवज्ञा एवं उपेक्षा करके मन्त्र-तन्त्र में फँसे, तब से वहाँ भी दिगम्बर सम्प्रदाय की तरह ही मान्त्रिक के अलावा तान्त्रिक स्तोत्रों की भी रचना होने लगी। इतना ही नहीं, जो पुरातन स्तोत्र मन्त्रपूत नहीं थे उनको भी मन्त्रशक्तियुक्त माना गया, और वह भी यहाँ तक कि “लोगस्ससूत्र (चउविसत्थो)" एवं दशवैकालिकसूत्र की प्रसिद्ध आरम्भगाथा “धम्मोमंगलमुक्किठ्ठ” को और महामंगलमय माने जाते ‘पञ्चपरमेष्ठि' नमस्कार मंगल को भी नहीं छोड़ा! और मन्त्र-तन्त्र पर श्वेताम्बरों में जैसे-जैसे दिलचस्पी बढ़ती गई अनेक महिमावर्धक एवं चामत्कारिक किंवदन्तियाँ भी प्रचार में आती गईं । भद्रकीर्ति (बप्पभट्टि सूरि, प्राय: ईस्वी ७४४-८३९) के शारदास्तव में से मन्त्राम्नाय वाला पद्य लुप्त कर दिया गया है, सिद्धसेन दिवाकर के हाथ में आया हुआ मन्त्र-ग्रन्थ उनको पूरा पढ़ने से पहले देवता ने छीन लिया, इत्यादि । यह सब देखते हुए भक्तामरस्तोत्र के बारे में चलती मध्यकालीन एवं आधुनिक किंवदन्तियों की भर्त्सना व आलोचना न शोध-प्रयासों में सार्थक सिद्ध हो सकेगी, और न वह उपयुक्त है । दरअसल बात तो यहाँ पर यह थी कि भक्तामरस्तोत्र में मूलत: ४८ पद्य थे तो इनमें से चार को श्वेताम्बरों ने यदि हटा दिया तो क्यों हटा दिया ? इसका तो कोई युक्तिसंगत उत्तर अजयकुमार जैन शास्त्री की चर्चा में नहीं मिलता । उन्होंने उस दिशा में खोज का कोई ख़ास प्रयत्न ही नहीं किया ।
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