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________________ भक्तामर की पद्यसंख्या २५ नहीं है; और वह भी जब कि अष्ट-प्रातिहार्यों के विभाव को श्वेताम्बर भी दिगम्बरों जितनी चुस्ती से मानते थे । यह हटाने वाली बात यदि कल्याणमन्दिरस्तोत्र को सामने रखकर हुई हो तो उस स्तोत्र में भी अष्ट-महाप्रातिहार्यों वाले आठ पद्य थे ही; इसलिए भक्तामर में से प्रातिहार्य सम्बन्धी चार पद्य न हटाकर कोई और ही चार पद्य निकाल दिये जा सकते थे । अन्यथा ईस्वी १२वीं-१३वीं शताब्दी की खंभात, पाटन और जैसलमेर के भण्डारों में संरक्षित ताड़पत्रीय प्रतियों में से कुछ तो ऐसी मिलनी चाहिए थीं जिनमें ४८ पद्य हों । लेकिन ऐसा नहीं मिलता है । दिगम्बर-मान्य पाठ के चार अतिरिक्त पद्य मूलकार के हैं या नहीं और नहीं है तो कब प्रक्षिप्त हुए इस विषय पर आगे परीक्षण किया जायेगा। डा० ज्योतिप्रसाद के पूर्व इस समस्या का सुझाव पंडितप्रवर अमृतलाल शास्त्री ने अपनी दृष्टि से पेश किया था । प्रभाचन्द्र के “मानतुंगचरित” की श्रृंखला वाली कथा सम्बन्धी चर्चा के समापन में वे इस नतीजे पर पहुंचे थे : “ऊपर बतलायी गयी बेड़ियों की चवालीस संख्या ही मेरी दृष्टि से भक्तामरस्तोत्र की पद्य-संख्या की मान्यता का कारण है ।"६ हम इससे भी सहमत नहीं । वहाँ आदित्व (और इसलिए महत्त्व एवं प्राथमिकता) 'बेड़ी की संख्या' का नहीं, पद्य की संख्या का था । दन्तकथा पहले गढ़ दी जाय और बाद में उसको प्रमाण मानकर स्तोत्र की पद्य संख्या में फर्क कर दिया जाय, यह बात न व्यवहार में संभव है, न ही तर्कसंगत है । प्रबन्धकार के सामने जो उपस्थित पद्य संख्या थी, उसी को देखकर ही ४४ बेड़ियों की कथा का सर्जन हो सकता है । आखिर ४४ अंक की कोई ऐसी तो विशेषता या पवित्रता नहीं जिसके आधार पर बेड़ियों के लिए ४४ पद्य ही लेना जरूरी बन जाय'; और इस तर्क को लेकर, दन्तकथा के प्रति अत्यधिक आदर दिखाकर, उसके खातिर लोकप्रसिद्ध चिरंतन स्तोत्र को खण्डित किया जाय । इतना ही नहीं, ऐसी चेष्टा, छेड़छाड़, स्वेच्छाचार को सम्प्रदाय के तत्कालीन विभिन्न गच्छों के अनेक दिग्गज एवं व्यत्पन्न आचार्यों-मनियों का समर्थन भी प्राप्त हो जाय ! ऐसी कल्पना अति साहस का द्योतक ही माना जायेगा । प्रश्न यह भी तो हो सकता है कि दिगम्बर-मान्य कथा-पाठ में बेड़ियों या अर्गला या निगड की संख्या “४८" कैसे आ गई ? क्या उसका आधार वहाँ मान्य पद्यों की “४८" संख्या नहीं हैं ? अर्थात् वहाँ भी पद्य-संख्या पर ही तो प्रमुख जोर है ! जैसे कि पीछे हम देख आये हैं (पृ० १८), कटारिया महोदय ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है। इस सन्दर्भ में साराभाई नवाब के कथन पर भी यहाँ विचार कर लें । “......भक्तामर के श्लोकों की संख्या चवालीस होने के समर्थन में वृद्ध परम्परा ऐसी है कि इस अवसर्पिणी में 'भरत' क्षेत्र में हो गए २४ जिनेश्वर और अधुना ‘महाविदेह' क्षेत्र में विचरने वाले २० जिनेश्वर मिलकर ४४ संख्या होती है । यह स्तोत्र भी ४४ संख्यात्मक है, और इसका कारण उसका एक-एक पद्य एक-एक जिनेश्वर की स्तुतिरूप है ।" (साराभाई से पांच साल पूर्व प्रा० कापड़िया ने भी उल्लेख रूपेण कुछ ऐसा ही कहा था ।) जहाँ तक ४४ संख्या का सम्बन्ध है, ऐसा मेल तो एक तरह से आकस्मिक सा है । अन्यथा यह सूचन का औचित्य है ही नहीं । क्योंकि स्तोत्र में केवल युगादि ऋषभदेव को ही उद्बोधन है । उसमें कहीं भी वर्तमान चौबीसी के अन्य तीर्थंकरों और इनके अलावा महाविदेह क्षेत्र के २० तीर्थंकरों का किसी रूप में वर्णन नहीं है, न परोक्ष रूप से उनका उल्लेख है । इस तथाकथित “वृद्ध परम्परा" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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