________________
मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
स्तोत्र की उस काल से लेकर क्रमश: अधिकतर संख्या में प्रतिलिपियाँ भी होती रही होगी, और १३वीं शताब्दी उत्तरार्ध के करीब इसका जब पर्याप्त प्रचार श्वेताम्बरों में हो चुका, और उसके कर्त्ता कौन थे, किस सम्प्रदाय के थे, इस बात का विस्मरण हो गया तब प्रभाचन्द्र ने सिद्धसेन दिवाकर से सम्बन्धित कथा में यह कहकर कि प्रव्रज्या के समय सिद्धसेन का नाम 'कुमुदचन्द्र' था ( और इस तरह सिद्धसेन से उसे सायुज्य करके) दुविधा से छुटकारा पा लिया हो । इससे स्तोत्र को पुरातनता एवं विशेष गरिमा भी प्राप्त हो गई । असल में कुमुदचन्द्र नाम के मुनि या आचार्य श्वेताम्बर परम्परा में कहीं भी नहीं हुए * पर मध्यकालीन कर्णाटक में दिगम्बर सम्प्रदाय के इस अभिधानधारी मुनि ठीक संख्या में मिलते हैं । दूसरी ओर देखा जाय तो कल्याणमन्दिरस्तोत्र का, और सिद्धसेन की उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओं के कलेवर, शैली, और भाव के बीच कोई मेल नहीं और वह द्वात्रिंशिका भी नहीं है । कल्याणमन्दिर पर भक्तामर का प्रभाव होते हुए भी उसकी शैली, संरचना, कल्पना और प्रयुक्त अलंकारों के विशेष प्रकार और लगाव आदि सभी तत्त्व स्पष्टतया मध्यकालीन हैं । कुछ कल्पनाएँ विकसित और उदात्त होते हुए भी इसमें भक्तामर जैसी प्राचीन स्तुति-काव्यों की उत्कृष्ट प्रासादिकता एवं लयकारी का प्रायः अभाव ही है । कापड़िया महोदय ( और दूसरे भी कुछ श्वेताम्बर विद्वान् ) यद्यपि ज़िद करके इस कृति को सिद्धसेन की, एवं श्वेताम्बरीय सिद्ध कर रहे हैं, लेकिन यह सब पर्याप्त परीक्षण के अभाव का ही द्योतक है । स्वयं कापड़िया द्वारा किया हुआ भक्तामर और कल्याणमन्दिर का तुलनात्मक अध्ययन उनकी इस मान्यता का अपलाप करता है ।
२४
मूलतः ४८ पद्यों में किसी भी प्रकार का
दूसरी ओर श्वेताम्बरों ने कल्याणमन्दिर को सामने रखकर भक्तामर के से चार को हटाकर ४४ पद्योंवाला स्तोत्र बना दिया होगा ऐसा मानने के लिए आधार नहीं है । यदि “ मुग्धता” काव्यों की संख्या में फेरफार करने में निमित्त बन सकती हो तो दिगम्बर सम्प्रदाय भी कल्याणमन्दिर पर उतना ही मुग्ध था जितना श्वेताम्बर । उन्होंने इस कारण अपने सामने ४८ पद्यों वाला भक्तामर रहा हो तो उसको ४४ पद्यों वाला क्यों नहीं बना दिया ? कोई जवाब नहीं ! श्वेताम्बर में प्रचलित स्तोत्र साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो वहाँ प्रधानता भक्तामर की रही, और आज भी है; कल्याणमन्दिर का स्थान दूसरा है । 'श्वेताम्बर' कोई एक स्वाधीन व्यक्ति नहीं जो मन चाहे कर सके । मध्यकाल में वह सम्प्रदाय अनेक गच्छों में विभक्त था । १२वीं शती में वहाँ नागेन्द्र, चन्द्र, बृहद्, हर्षपुरीय, पूर्णतल्ल, खरतर, पौर्णमिक, अञ्चल, सरवाल, जाल्योधर, और चित्रवालक आदि अनेक संविज्ञविहारी एवं सुविहित तपस्वी मुनियों के गच्छ, और थारापद्र, मोढ, वायट, उकेश, ब्रह्माण, कोरंट, संडेर, खंडिल्ल या भावाचार्य और नाणकीय जैसे सुखशील चैत्यवासी गच्छों की प्रधानता थी । मुनियों और उनके श्राद्धों की संख्या भी प्राय: सैकड़ों में थी और वे सब प्राय: पूरे राजस्थान और गुजरात में फैले थे । यदि किसी एक गच्छ के लोग भक्तामर के ४८ पद्यों में से ४
हटा देते तो उस अनुचित कार्य को अन्य गच्छ वाले चुपचाप बहाली न दे देते । (गच्छों के बीच हमेशा सुमेल रहता ही था ऐसा नहीं था ।) उस ज़माने में पश्चिम भारत के मुख्य नगरों में स्थित अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थ भण्डार थे, और अनेक प्रतिलिपिकार भी । भक्तामर की अलग-अलग स्थानों में लिखी जाने वाली सभी प्रतियों में एक साथ गाँठ करके सब में से एक साथ चार पद्य हटा दिये जाँय, विश्वसनीय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org