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भक्तामर की पद्यसंख्या
यह सुविदित है कि श्वेताम्बरीय पाठ में इस स्तोत्र के ४४ और दिगम्बरीय में ४८ पद्य मिलते हैं । कारण यह कि अष्ट-महाप्रातिहार्य के माने जाते समूह में से पहले में चार ही, और दूसरे में शेष रहनेवाले चार मिलाकर परम्परा-मान्य पूरे आठों प्रातिहार्य निरूपक आठ पद्य हैं । इन दोनों में कौन सही है इस विषय को लेकर दोनों पक्षों के विद्वद्वर्यों के द्वारा काफ़ी ऊहापोह हो चुका है । चर्चा में हम ४४ पद्य को मानने वाले पक्ष की युक्तियाँ पेश करेंगे, और साथ-साथ प्रतिपक्षीय ४८ पद्य वालों का कथन देकर अपनी राय बतलायेंगे ।
यकॉबी महत्तर का कथन था कि कुमुदचन्द्र विरचित कल्याणमन्दिरस्तोत्र (प्राय: ईस्वी ११००११२५) का (रूपगत-शैलीगत) आदर्श, भक्तामरस्तोत्र रहा है । वह भी ४४ पद्यों में, एवं प्राय: वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध है । (अन्तिम पद्य में अलबत्ता यहाँ आर्या वृत्त से छन्दोभेद किया गया है, जो भक्तामर में नहीं है ।) इसका मतलब यह हुआ कि उस वक्त (ईस्वी १२वीं शती के आरम्भ में) भी, 'अनुकरण प्रवृत्त' कुमुदचन्द्र के सामने भक्तामरस्तोत्र का जो पाठ रहा था उसमें ४४ पद्य ही थे ।
इस सन्दर्भ में विद्वद्पुंगव डा. ज्योतिप्रसाद जैन का कथन यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा : “एक सम्भावना है - आचार्य कुमुदचन्द्र ने कल्याणमन्दिर की रचना १२वीं शती ई. के प्रारम्भ के लगभग की थी । जब श्वेताम्बर विद्वानों ने उस पर मुग्ध होकर उसे अपना लिया और उसके साथ सिद्धसेन दिवाकर जैसा प्राचीन प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य का नाम जोड़ दिया तो उसके अनुकरण पर भक्तामर के चार श्लोक (३२, ३३, ३४, ३५) निकाल कर उसे भी कल्याणमन्दिर जैसा ४४ श्लोकी बना लिया गया और उक्त परम्परा में वह उसी रूप में प्रचलित हो गया हो । वस्तुत: भाषा, शैली, भाव आदि किसी दृष्टि से उन चारों श्लोकों के मूलत: भक्तामरकार की कृति होने में कोई भी बाधा नहीं है, वे असम्बद्ध या असंगत भी नहीं हैं, और उसके बिना स्तोत्र अपूर्ण और सदोष रह जाता है। उन चारों श्लोकों में ऐसी भी कोई बात नहीं है कि किसी भी सम्प्रदाय को कोई ठेस लगती हो ।" कल्याणमन्दिरस्तोत्र १२वीं शती के प्रारम्भिक चरण में बना और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र हैं, न कि श्वेताम्बर परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, इस बात से हम पूर्णतया सहमत हैं । यद्यपि इसे यकॉबी महोदय ने मान्य नहीं किया है, फिर भी कुछ अन्य जैन विद्वद्वर्यो की तरह हम भी मानते हैं कि यह कुमुदचन्द्र वही हैं जिनका गुजरात की राजधानी अणहिल्लपत्तन में बृहद्गच्छीय श्वेतपट्ट आचार्य, वादी देव सूरि से ईस्वी ११२५ में सोलंकी सम्राट् जयसिंहदेव सिद्धराज की सभा में वाद हुआ था । प्रबन्धों के अनुसार कर्णाटक के बाद कर्णावती (बाद के अहमदाबाद) में चातुर्मास व्यतीत करके वे पाटन गये थे । सम्भवत: उसी समय गुजरात के श्वेताम्बर सम्प्रदाय उनके कल्याणमन्दिरस्तोत्र से परिचित हुआ।
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