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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
यस्यादेशविधायिनी समभवद् देव्यम्बिका सर्वदा पायाद् वः स सदा सुनिर्मलगुणः श्री मानतुङ्गः प्रभुः ।।
- राजगच्छपट्टावली ठीक यही पद्य पुण्यरत्नसूरि की बृहद्गच्छगुर्वावली (सं० १९२० / ई० सं० १५६४) के अन्तर्गत भी मिलता है । मालवेश्वर वैरिसिंह प्रथम (ईस्वी ८२५) एवं द्वितीय (ईस्वी ८७५) परमार वंश के थे, चौलुक्य (सोलंकी) नहीं । और भक्तामरस्तोत्र निश्चित रूप से इन दोनों से प्राचीन रचना है।
ईस्वी १५८० से कुछ साल बाद लिखी गई तपागच्छीय लघुपोसालिकपट्टावली में मानतुंग सूरि से सम्बद्ध इस तरह का उल्लेख मिलता है।
मानतुंगसूरिभक्तामर-भयहर-भत्तिब्मर-अमरस्तवादिकृत् ।
भक्तामरं च भयहरं च विधापनेन
नम्रीकृतः क्षितिपतिर्भुजगाधिपश्च । मालवके तदा वृद्धभोजराजसभायां मानं प्राप्तं भक्तामरतः
__ - लघुपोसालिकपट्टावली प्राय: उसी समय के समीप तपागच्छीय धर्मसागर गणि के तपागच्छपट्टावलिसूत्र (सं० १६४८/ ई० स० १५८२) में भी कुछ इसी तरह की बात कही गई है । यथा :
येन भक्तामरस्तवनं कृत्या बाण-मयूरपंडितविद्या चमत्कृतोऽपि क्षितिपतिः प्रतिबोधितः । भयहरस्तवन करणेन च नागराजो वशीकृत: भक्तिभरेत्यादि स्तवनानि च कृतानि ।।१३
दिगम्बर साहित्य में भक्तामरस्तोत्र से सम्बद्ध जो कथाएँ मिलती हैं, १७वीं शती के पूर्व की नहीं हैं । उनकी हालत तो श्वेताम्बर कथाओं से भी बुरी है । ब्रह्म० रायमल्ल (पश्चात् के रत्नचन्द्रसूरि) की भक्तामरवृत्ति (ई० स० १६२६) श्वेताम्बर गुणाकर सूरि की वृत्ति (ईस्वी १३७०) को सामने रखकर बनाई हुई प्रतीत होती है और साराभाई नवाब का तो कहना भी है कि गुणाकर की दी हुई कथाओं, पात्रों के नामादि बदल कर, कुछ सम्प्रदाय के अनुकूल इधर-उधर हेराफेरी करके ही रची गई है।४ । यहाँ तो कमरे भी एक की जगह ४८ हो गये हैं । इसमें धाराधीश भोज की सभा के सदस्य के रूप में एवं चमत्कार दिखाने वाले कवियों में बाण-मयूर न हो कर कालिदास, भारवि और माघ उपस्थित किए गये हैं । इनमें से कालिदास गुप्तकालीन थे, किरातार्जुनीयकार महाकवि भारवि ईस्वी छठी शताब्दी पूर्वार्ध में हुए थे और गूर्जरदेशवासी महाकवि माघ के शिशुपालवध-महाकाव्य का समय प्राय: ईस्वी ६७५ है । भट्टारक विश्वभूषण (ईस्वी १६६७) तो ब्रह्म० रायमल्ल से भी आगे निकल गये हैं । यद्यपि डा० ज्योतिप्रसाद जैन ने विश्वभूषण के भक्तामरचरित के अन्तर्गत (दिगम्बर सम्प्रदाय में हुए) महाकवि धनंजय मानतुंग के शिष्य थे, केवल इतना ही उल्लेख उस प्रसंग में किया है५ पर डा० नेमिचन्द्र तो निर्देशित कर चुके हैं कि वहाँ (धनंजय के अतिरिक्त) वररुचि, कालिदास, भर्तृहरि, और शुभचन्द्र भी समाविष्ट हैं१६ । वररुचि गुप्तकाल में (या इससे थोड़ा पूर्व ?) कहीं थे; वैयाकरण भर्तृहरि ईस्वी पंचम
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