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भूमिका
ठीक इसी तरह उत्तराध्ययनसूत्र के “महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन" (प्राय: ईसा पूर्व की द्वितीय शती) के अन्तर्गत भी लक्खन (लक्षण, हस्तरेखा-शास्त्र), स्वप्न, निमित्त, कुतर्क, विद्या (जादू), और स्त्री से निर्वाह करने वाले की शरण न लेने की अनुज्ञा है । यथा :
जे लक्खनं सुविनं पउंजमाने निमित्त-कोउहल-संपगाढे । कुहेड-विज्जासव-दारजीवी न गच्छती सरनं तम्मि काले ।।
- उत्तराध्ययनसूत्र (२०.४५) इसी सूत्र के “स भिक्खु" अध्ययन के दो पद्यों में भी करीब-करीब इन्हीं विषयों को भिक्षु के लिए त्याज्य माना गया है । वहाँ कहा गया है कि छिन्नविद्या, स्वरशास्त्र, भौम (निमित्त का एक प्रकार), आकाशज्ञान, स्वप्नशास्त्र, लक्षणशास्त्र, यष्टिज्ञान, वास्तुविद्या, अंगविद्या और स्वर-विजयादि विद्याओं का उपजीवी न हो, वही भिक्षु है । तदतिरिक्त मन्त्र, मूलिका, वमन-विरेचनादि विविध प्रकार के वैदकीय चिकित्सादि व्यवसायों का त्यागी हो, वही भिक्षु है । यथा :
छिन्नं सरं भोम्मं अंतलिक्खं सुविनं लक्खन दंड वत्थुविजं । अंगवियारं सरस्स विजयं जे विजाहिं न जीवती स भिक्खु ।। मंतं मूलं विविधं विज्जचिंतं वमन-विरेचन-धूम-नेत्त-सिनानं । आतुरे सरनं तिरिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वते स भिक्खु ।।
- उत्तराध्ययनसूत्र १५.७,८ इसिभासियाइं (ऋषिभाषितानि) भी बहुत प्राचीन, ईसा पूर्व की सदियों का ग्रन्थ है । वहाँ अर्हत् वारत्रक के मुख में निम्नोट्टंकित पद्य रखा गया है, जिसका अर्थ है कि (मुनि को) लक्षण, स्वप्न, प्रहेलिका आदि का कथन करना श्रामण्य धर्म से विपरीत है, यथा :
जे लक्खन-सुविन-पहेलिगाओ आक्खातीयति च कुतूहलाओ । मद्ददानातिं नरे पउंजते सामन्नस्स महन्तरं खु से ।।
- इसिभासियाई २७-४ और इसी ग्रन्थ में अर्हत् इन्द्रनाग के उपदेश में विद्या, मन्त्रोपदेश, दूती-संप्रेषण, भाविभवकथनादि के सहारे जीना अविशुद्ध समझा गया है ।
विज्जा-मंतोपदसेहिं दूतीसंपेसनेहि वा ।। भावीभवोपदेसेहिं अविसुद्धं तु जीवति ।।
- इसिभासियाई ४१-२० इन सब में तन्त्र का उल्लेख नहीं मिलता, क्योंकि ये तीनों सूत्र-ग्रन्थ बहुत प्राचीन हैं; जबकि
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