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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
भक्तामर वस्तुतया परमोदात्त, भक्तिरस से ओतप्रोत, एवं आत्मोन्नतिपरक रचना है । उसमें कहीं भी भौतिक लालसाओं को संभूत करने का कीमिया न तो प्रकट न ही छिपे रूप में रखा गया है, न ही वहाँ ऐहिक एषणाओं की तृप्ति का कोई तरीका बताया गया है ! उसमें तो प्रशमरसदीप्त, ध्यानस्थ, प्रशान्तमूर्ति वीतराग के समान बनने की कामना ही केन्द्रस्थ है । यथा :
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नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ! भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।
विशेषकर गुप्तयुग पश्चात् भारत में चारों ओर, करीब सर्व धर्म-सम्प्रदायों में फैल गये मंत्रतंत्रवाद निर्ग्रन्थ धर्म भी अछूता न रह सका । उस ज़माने की तासीर को देखकर, अपने अस्तित्व को टिकाने के खातिर यदि उसने मन्त्र-तन्त्र को अपनाया हो तो भी सैद्धान्तिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उसका कोई समर्थन नहीं मिलता ।
यहाँ इस मुद्दे पर कुछ और विचार करना आवश्यक है । निर्ग्रन्थ दर्शन में विशेषकर अनुगुप्तकाल से उत्तर की परम्परा में चैत्यवास, और दक्षिण की परिपाटी में मठवास का प्रादुर्भाव हुआ । उत्तर वाले निर्ग्रन्थ- गण यूँ तो आगमों के अच्छे ज्ञाता एवं संरक्षक रहे हैं, और आगमिक व्याख्याओं का भी उन्होंने विपुल प्रमाण में सर्जन किया; फिर भी वे शिथिलाचार में क्रमश: काफ़ी हद तक प्रवृत्त हो गए थे । विज्जाओं - विद्याओं-सिद्धियों की, और उनके कारण मान्त्रिक उपासना की ओर झुकाव तो उत्तरापथ के निर्ग्रन्थों में गुप्तकाल से, संभवतः उससे भी पहले, शुरू हो गया था । उस युग में हुए आचार्य आर्य खपट को संघदास गणि क्षमाश्रमण के बृहत्कल्पभाष्य ( ईस्वी ६ठी शती मध्यभाग) में "विद्याबलि ” कहा गया है, एवं उनके विद्या सामर्थ्य सम्बद्ध विवरणात्मक कथाएँ मध्यकालीन श्वेताम्बर साहित्य में पुरानी अनुश्रुतियों के आधार पर ११वीं - १२वीं शताब्दी से मिलती हैं ।
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मन्त्रवाद का प्रवेश तो इस तरह प्राचीन काल में हो गया था, किन्तु तन्त्र का प्रवेश प्राकमध्यकाल से ही हुआ । आर्य शय्यंभव (वा आर्य स्वायम्भूव) के माने जाते दशवैकालिक सूत्र के प्रायः ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी वाले हिस्से में “ आचार प्रणिधी अध्ययन" में मुनियों के लिए नख्खत किंवा नक्षत्र (ज्योतिष), सुमिन ( सुपिन, स्वप्न), जोग ( योगविद्या ), निमित्त (अष्टांग निमित्त के आधार पर भविष्य कथन), मंत (मन्त्र) और भेसज (भैषज्य ) का प्रयोग निषिद्ध बताया गया है । यथा :
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नखतं सुमिनं जोगं निमित्तं मंत भेसजं । गणितं न चिक्खे भूताधिकरणं पदं ।।
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दशवैकालिकसूत्र ८-५०
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