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________________ भूमिका स्तोत्र की शैली तो मुगल युग के अच्छे संस्कृत लिखने वाले कवि-पंडितों जैसी है । इसलिए इसकी प्रति कितनी पुरानी मिलती है वह भी देखना जरूरी है । एक बात और यह भी है कि यदि वह १२वीं१३वीं शती जितनी पुरानी रचना है, तो उत्तर-मध्यकाल में (जिस वक्त भक्तामर को लेकर अनेक रचनाएँ हुई थीं) क्यों ऐसी कोई और रचना दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं हुई ? (ठीक यही रचना श्वेताम्बर सम्प्रदाय में संघहर्षशिष्य धर्मसिंह सूरि के शिष्य रत्नसिंह की मानी जाती है, पर वह कृति ४८ पद्यों वाले भक्तामर को लेकर है, इस कारण वह मूलत: दिगम्बर होना संभावित है । परन्तु श्वेताम्बर उसके चार विशेष पद्यों को प्रक्षिप्त मानते हैं, ऐसी कापड़िया महोदय ने टिप्पणी की है; पर यह बात विचारणीय है ।) दूसरी ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मल्लिषेण का एक भक्तामरस्तोत्र-छायास्तव मिलता है । यदि वह स्याद्वादमंजरीकार नागेन्द्रगच्छीय मल्लिषेण का हो (और उनके सिवा और तो कोई मल्लिषेण नामक मुनि श्वेताम्बर परम्परा में है नहीं !) तो वह स्तव ईस्वी १३ वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों का हो सकता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पादपूर्तिरूप रचनाएँ उत्तर मध्ययुग में बहुत सी हुई हैं । इसकी सूची हम यहाँ प्रा० कापड़िया की दी हुई सूचियों एवं कुछ अन्य साधनों के आधार पर तालिका क्रमांक ३ में पेश कर रहे हैं। उवसग्गहरथोत्त जैसे स्तोत्रों की तरह भक्तामरस्तोत्र को भी कम से कम १४ वें शतक से मन्त्रयुक्त होना माना जाता था ऐसा अन्दाज़ा गुणाकर सूरि की वृत्ति में निदर्शित मन्त्राम्नायों में से निकल सकता है । बाद में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई और आज तो श्वेताम्बर-दिगम्बर भंडारों में तथा व्यक्तिगत संग्रहों में भक्तामर सम्बद्ध अनेक मन्त्र-तन्त्र युक्त पोथियाँ मिलती हैं । इस सन्दर्भ में विद्यावारिधि ज्योतिप्रसाद जैन का अवलोकन यहाँ उद्धृत करना उपयुक्त होगा । “दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्र ने इस स्तोत्र को "महाव्याधिनाशक" बताया तो श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्र सरि (१३वीं शती) ने इसे “सर्वोपद्रवहर्ता' बताया । वस्तुत: यह स्तोत्र मान्त्रिक शक्ति से अद्भुतरूप में सम्पन्न है। इसके प्रत्येक पद्य के साथ एक-एक ऋद्धि, मंत्र-यंत्र एवं माहात्म्य सूचक आख्यान सम्बद्ध हैं ।"३५ लेकिन कटारिया महानुभाव का विश्वास है कि “भट्टारकादिकों ने इस सरल और वीतराग स्तोत्र को भी मंत्रतंत्रादि और उनकी कथाओं के जाल से गूंथकर जटिल और सराग बना दिया है.... ।'३६ दुर्गाप्रसाद शास्त्री का भी कहना है : “कैश्चन टीकाकारैः प्रतिश्लोकं मन्त्रस्तत्प्रभावकथा च लिखितास्ति । ते च मन्त्रास्तत्तत्पद्येभ्य: कथं निर्गता इति त एव जानन्ति । मन्त्रशास्त्ररीत्या तु तेभ्य: श्लोकेभ्यस्तेषां मन्त्राणामुद्धारो दुष्कर एव ।'३७ ऐसा लगता है कि तीर्थंकर के नामस्मरण से 'अष्टमहाभय' दूर होते हैं ऐसी कल्पना को लेकर स्तोत्र में आठ पद्य सन्निविष्ट होने से इसको उत्तर-मध्यकाल में मन्त्रगर्भित मान लिया गया । बाद में तो स्तोत्र के प्रत्येक पद्य के लिए यन्त्र बनाकर, मूलकर्ता के सीधे एवं निर्दोष आशय की अवहेलना करके, स्तोत्र पर भीषण रूप से मान्त्रिक-तान्त्रिक बलात्कार किया गया । परम सात्त्विक निर्ग्रन्थ दर्शन के लिए मान्त्रिक-तान्त्रिक क्रिया अघोर एवं अकल्प्य तो है ही, साथ ही सावद्य एवं उत्सूत्र-प्रवृत्ति होने के कारण वह सर्वथा निषिद्ध भी है । (११वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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