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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
प्रेमी', मुनिवर कल्याणविजय', श्वेताम्बर विद्वद्वर्य हीरालाल रसिकदास कापड़िया, शोधक-प्रकाशक साराभाई मणिलाल नवाब, और उनके अतिरिक्त दिगम्बर पण्डितप्रवर अजीत कुमार जैन शास्त्री; और अन्य श्वेताम्बर विद्वानों में श्रीमद् सागरानन्द सूरि ३, मुनि दर्शनविजय, मुनि त्रिपुटी'५, मुनि चतुरविजय, विद्वान् श्रेष्ठिवर अगरचन्द नाहटा, और दिगम्बर विद्वद्गण जिनमें श्रीयुत् रतनलाल कटारिया, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० अमृतलाल शास्त्री, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, और डा० ज्योतिप्रसाद जैनरे, के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । डा० ज्योतिप्रसाद जैन से छह साल पूर्व श्वेताम्बर विद्वान् पं० धीरजलाल टोकरशी शाह३, एवं वैदिक विद्वान् डा० रुद्रदेव त्रिपाठी ने भी भक्तामर को लेकर उपयुक्त चर्चा की है । अब से कुछ ही साल पूर्व तन्त्रीप्रवर रमणलाल शाह द्वारा भी उपयुक्त ऊहापोह हुआ है ।
उपलब्ध वाङ्मय में मानतुंग के जीवन से सम्बद्ध कथा सबसे पहले श्वेताम्बर आम्नाय के राजगच्छ के प्रभाचन्द्राचार्य रचित प्रभावकचरित६ (सं० १३३४ / ई० १२७७) में मिलती है । तत्पश्चात् उत्तर-मध्यकाल में नागेन्द्रगच्छीय मेरुतुंगाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१ / ई० १३०५), रुद्रपल्लीयगच्छ के गुणाकर सूरि की भक्तामर-विवृत्ति२८ (सं० १४२६ / ई० १३७०) और प्रबन्धात्मक संकलन ग्रन्थ पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह के अन्तर्गत “मानतुंगाचार्य प्रबन्ध' (ई० १५ शताब्दी मध्यभाग) में उपलब्ध है । इसके अलावा तपागच्छीय मुनिसुंदर सूरि की गुर्वावली° (सं० १४६६ / ई० १४१०) जैसी पट्टावल्यात्मक कृतियाँ और तपागच्छीय शुभशील गणि का भक्तामरमाहात्म्य (१५वीं शती तृतीय चरण) जैसी अन्य श्वेताम्बर रचनाओं में भी इस विषय में यथावकाश संक्षिप्त या विस्तार से उल्लेख या कथात्मक विवरण हुए हैं ।
___ इस स्तोत्र पर उत्तर-मध्यकाल में १७वीं शताब्दी तक की अनेक वृत्तियाँ तथा अवचूात्मक एवं महिमापरक रचनाएँ भी प्राप्त हैं । पहले दिगम्बर आम्नाय से प्राप्त ऐसी रचनाएँ, उनके ज्ञात-अज्ञात कर्ता एवं रचना-काल सहित, प्रथम तालिकामें प्रस्तुत की जाती हैं : (देखिए तालिका क्रमांक १) ।
इन उत्तर-मध्यकालीन दिगम्बर कर्ताओं के अतिरिक्त १९वीं शती में भट्टारक सुरेन्द्रभूषण की एक और पं० शिवचन्द्र की भक्तामरस्तोत्र-टीका इत्यादि अन्य भी रचनाएँ हुई हैं । ठीक इसी तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय से भी बड़ी संख्या में वृत्तिटीकादि साहित्य प्राप्त हुए हैं, जो यहाँ द्वितीय तालिका में प्रदर्शित हैं । इनके अतिरिक्त प्रा० कापड़िया ने कीर्ति गणि, चन्द्रकीर्ति सूरि और हरितिलक गणि की ऐसी ही रचनाएँ होने का ज़िक्र तो किया है३२, पर उनके समयादि का पता नहीं हो सका । ये सब प्राय: १६वीं-१७वीं शताब्दी के कर्ता रहे होंगे । (इनमें से चन्द्रकीर्ति यदि नागोरी तपागच्छ से सम्बद्ध होंगे तो समय १६वीं शती आखिरी चरण और खरतरगच्छीय होंगे तो १७वीं शती पूर्वार्ध रहेगा ।)
भक्तामरस्तोत्र के एक चरण को पादपूर्ति या समस्यापूर्ति के रूप में रखकर भी कई रचनाएँ बंधी हुई हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में “नेमि भक्तामर" नामक सिंहसंघ के धर्मसिंह सूरिशिष्य रत्नसिंह सूरि की ऐसी, एक हृदयंगम रचना उपलब्ध है जिसको श्रीमान् ज्योतिप्रसाद जैन ई० १२वीं-१३वीं शताब्दी जितनी पुरानी मानते हैं३३; पर इस नतीजे पर पहुंचने का कोई ठोस प्रमाण उन्होंने पेश नहीं किया है।
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