SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १ भूमिका सिद्धसेन दिवाकर (प्राय: ईस्वी पंचम शती पूर्वार्ध) १ एवं स्वामी समन्तभद्र (संभवत: ईस्वी ५५०-६२५)' निर्ग्रन्थ जगत् में आदिम एवं अप्रतिम स्तुतिकार होते हुए भी, उनकी अधिकतर कृतियाँ दुरूह होने के कारण केवल विद्वद्-भोग्या ही रह गईं; क्योंकि भक्तिरस और भावात्मकता की जगह उनमें जिनेन्द्र का विशेषकर बुद्धिजनित, दर्शनपरक एवं न्यायानुगामी गुणानुवाद केन्द्रस्थान पर विराजमान है । उपलब्ध निर्ग्रन्थ स्तुति - स्तव स्तोत्रादि में यदि सर्वाधिक प्रिय, प्रचलित और संग ही सर्वांगसुष्ठु भी कोई हो तो वह है मानतुंगाचार्य की कालजयी रचना, भक्तामरस्तोत्र । निर्ग्रन्थ दर्शन में रचा गया यदि कोई एक ही उत्कृष्ट स्तोत्र चुनना हो तो पसंदगी उसकी ही सकती है । इतना सुप्रसिद्ध और सर्वप्रिय होने का कारण है उसकी अप्रतिम काव्य-सुषमा, निर्बाध प्रवाहिता, कर्णपेशल आन्दोलितत्व, और इन सब में प्राणरूप सत्त्वलक्षणा भक्ति जैसे उत्तमोत्तम गुणों की मौजूदगी । इन्हीं कारणों से वह एक ऐसी सर्वांगसुन्दर कृति बन गई है, जिसका मुकाबला नहीं हो सका, वरन् अनुकरण काफ़ी तादाद में हुआ । मध्यकाल की तो अनेक स्तुतिपरक निर्ग्रन्थ रचनाओं पर उसका प्रभाव छाया हुआ है' । वसंततिलका अपरनाम मधुमाधवी वृत्त में निबद्ध इस प्रसन्न - गम्भीर, भावोन्मेष -सभर एवं चेतोहर रचना का अपना विशिष्ट और अननुभूत छन्दोलय है । इस कारण प्रत्येक पद्य, और उसके अंगभूत हर एक चरण, हेमन्त ऋतु के प्रशान्त सागर पर उठती मन्द मन्द तरंगावली का भास देता है । इतना ही नहीं, काव्य- पठन क्षणों में गुम्बज़ के भीतर उठते प्रतिरव के समान अद्भुत प्रतिघोष भी सहसा प्रकट होता है और संग ही आह्लाद और उल्लास की सौख्यानुभूति का अनायास आविर्भाव हो जाता है । निर्ग्रन्थ-स्तोत्र - रत्न- मंजूषा में यूँ तो अनेक दीप्तिमान रत्न भरे पड़े हैं; परन्तु इसमें अभिजात गुम्फना, प्रसन्नकर पदविन्यास, और समुचित एवं स्वाभाविक अलंकारों से सजीली ऐसी सर्वगुणसम्पन्न कोई और स्तवनात्मक रचना नजर नहीं आती । युगादीश्वर जिन ऋषभ के गुणस्तव स्वरूप इस अनन्य स्तोत्र की, निर्ग्रन्थ-दर्शन की दोनों विद्यमान परम्पराओं—श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में, करीब समान रूप से मान्यता है, और दोनों में वह उतना ही प्रतिष्ठाप्राप्त है । सदियों से वह स्तोत्र कंठस्थ किया जाता रहा है, और दोनों उसके रचयिता को अपने-अपने सम्प्रदाय का मानते हैं । इस मुद्दे को लेकर वर्तमान में काफ़ी बहस भी होती रही है । बहस एक और मुद्दे पर भी होती रही है : वह है स्तोत्र की पद्यसंख्या, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ४४ है और दिगम्बर में ४८ । इस सदाहरित, सुचारु, श्रुतिमधुर एवं ललित गम्भीर स्तोत्र की मौलिक पद्यसंख्या, रचयिता मानतुंगाचार्य का संभवित समय, और उनके असली सम्प्रदाय के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार और ऊहापोह का प्रारम्भ ख़ास करके जर्मन विद्वविभूति हॅरमान कॉबी, तत्पश्चात् वैदिक विद्वान् महामहोपाध्याय दुर्गाप्रसाद शास्त्री तथा वासुदेव लक्ष्मण पुणसिकर, दिगम्बर विद्वदुपुंगव पं० नाथूराम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy