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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
तन्त्र का विभाव अनुगुप्तकाल और निर्ग्रन्थों में तो विशेषकर प्राकमध्यकाल से सम्मूर्त हुआ था । परन्तु जहाँ विद्या एवं मन्त्रादि निषिद्ध हैं वहाँ तन्त्र की छूट तो दी ही नहीं जा सकती । वस्तुतया उपर्युक्त निषेधाज्ञाओं के संग तन्त्र का निषेध अपने आप अनुस्यूत बन जाता है, फलित हो जाता है । निर्ग्रन्थों के लिए इन थोथे मन्त्र-तन्त्रकी क्रियाएँ-तन्त्रमार्ग-वस्तुत: आत्मसाधन और मुक्तिमार्ग का प्रदर्शक बनना तो एक तरफ रहा, सैद्धान्तिक दृष्टि से संसारवृद्धि एवं भवभ्रमण का कारण तो नि:शंक ही बन जाता है । इस विषय में भक्तामर के अनुलक्षित ऐसे एक पहलू पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से आगे कुछ विचार किया जायेगा ।
टिप्पणियाँ :१. सिद्धसेन दिवाकर के समय के सम्बन्ध में विस्तार से उनकी “परात्मा द्वात्रिंशिका' आदि तीन स्तुतियों के पुन:
संपादन के समय अभी तैयार हो रहा ग्रन्थ, श्रीबृहद् निर्ग्रन्थ स्तुतिमणिमंजूषा (प्रथम खण्ड) की गुजराती में लीखी
गई “प्रस्तावना" के अंतर्गत कहा जायगा । २. स्वामी समन्तभद्र के समय सम्बद्ध चर्चा अहमदाबाद से प्रकाशित होनेवाले सामयिक निर्ग्रन्थ के तृतीयांक में प्रथम
संपादक के "स्वामी समन्तभद्रनो समय" नामक गुजराती लेख में, देख सकते हैं । ३. ये दोनों महास्तुतिकार दार्शनिक युग में हुए थे । स्वभाव से इनकी कृतियाँ दर्शनप्रवण रही हैं, फिर भी सिद्धसेन
की परात्मा द्वात्रिंशिका और समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र के कुछ पद्य उदात्त एवं काव्यगुणपूत हैं । ४. कुमुदचन्द्राचार्य कृत कल्याणमंदिरस्तोत्रादि प्रसिद्ध हैं । इसके अलावा निम्नोद्धृत पद्य भी देखिए जो पृथक् पृथक्
मध्यकालीन-उत्तरकालीन स्तुति-स्तोत्रों से लिया गया है जिन पर भक्तामर का प्रथम पद्य का प्रभाव स्पष्ट है । कुछ स्तुतिओं में देवताओं के समूह सम्बद्ध, तो कुछ में मात्र देवेन्द्र के लिए ही, उनके मुकुटमणिप्रभा तीर्थंकर के चरणों को प्रकाशित करती है । अ) पञ्चपरमेष्टि स्तुति (पञ्चगुरुभक्ति; प्राय: ७वीं शती)
श्रीमदमरेन्द्रमुकुटप्रघटितमणि किरणवारिधाराभिः । प्रज्वलित पदयुगलान्प्रणमामि जिनेश्वरान्भक्त्या ।।१।।
- हु० श्र० सि० पा०, पृ० १२८ आ) चैत्यस्तुति (चैत्यभक्ति; प्राय: ७वीं शती)
तदेतमरेश्वर प्रचलमौलिमाला मणि
स्फुरत्किरणचुम्बनीय चरणारविन्दद्वयम् । पुनातुभगवजिनेन्द्र तव रूपमन्धिकृतम् जगत्कलमन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयैः ।।३६।।
- हु० अं० सि० पा०, पृ० १५१ इ) बृहद्-शान्तिस्तव की प्रत के अन्त में : (१०वीं शती)
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