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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
इससे स्पष्ट है कि मानतुंग ईस्वी ६३५ से भी पूर्वकालीन या कम से कम ईस्वी ५७५ और ६३५ के बीच रहे होंगे, ऐसी सम्भावना है ।
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स्वामी समन्तभद्र (प्राय: ई० ५५० - ६२५ ) २१ की स्तुत्यात्मक कृतियों से भक्तामर की तुलना करने पर दोनों के बीच कोई ख़ास सम्बन्ध हो ऐसा प्रतीत नहीं होता । समन्तभद्र अलंकारिक सम्प्रदाय के महाकवि थे और मानतुंग ने क्लिष्ट अलंकार और जटिल एवं व्यामिश्र यमकों का प्रयोग कहीं नहीं किया । दोनों के पद्यों में किसी भी प्रकार की समानता नहीं दिखाई देती । दोनों एक दूसरे की कृतियों
प्रायः अपरिचित ही रहे हों, ऐसा महसूस होता है । अलग-अलग क्षेत्रों में — मानतुंग शायद आनर्तलाट-मालव- विदर्भादि प्रदेशों में और समन्तभद्र दमिल, केरल- कुन्तल - कर्णाट आदि में - कदाचित् एक ही समय में विचरते रहे होंगे ।
दूसरी ओर सिद्धसेन दिवाकर (ईस्वी पंचम शती पूर्वार्ध) की सूक्तियों से मानतुंग परिचित रहे होंगे, ऐसा कुछ आभास कहीं-कहीं दोनों की रचनाओं में शब्द - साम्य से प्रतीत देता है; उदाहरणार्थ देखिए नीचे दिए हुए दोनों के पद्य चरण २ :
त्वन्नामकीर्तन जलं शमयत्यशेषम् ।।
त्वन्नामसंकीर्तन पूतयतनः
पंचमद्वात्रिंशिका - १
दोनों में " नामकीर्तन" और उसके प्रभाव की बात परिलक्षित है जो पौराणिक भक्तिमार्ग के प्रति निर्देश करता है और अन्यत्र प्राचीन निर्ग्रन्थ स्तुतिस्तवनों में ऐसा शब्द प्रयोग देखने में नहीं आता । भक्तामर के १५ वें पद्य के प्रथम चरण के प्रारम्भ का “चित्रं किमत्र यदि" पदखण्ड सिद्धसेन की दो द्वात्रिंशिकाओं में भी मिलता है :
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चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर् ।
चित्रं किमत्र यदि निर्वचनं विवाद |
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भक्तामर स्तोत्र - ३६
चित्रं किमत्र यदि तस्य तवैव राजन्
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भक्तामर स्तोत्र - १५
द्वितीयाद्वात्रिंशिका - ८
एकादशद्वात्रिंशिका - ११
इस बात में समानता निर्देशक एक और बात यह भी है कि सिद्धसेन की पिछली दोनों द्वात्रिंशिकाओं के सम्बन्धकर्त्ता पद्य भक्तामर की तरह वसन्ततिलका - वृत्त में ही निबद्ध है । यह सब आकस्मिक नहीं हो सकता । अतः उपर्युक्त दृष्टान्तों से ऐसा प्रतीत होता है कि भक्तामर के कर्त्ता
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