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स्तोत्रकर्ता का समय
शताब्दी के पूर्व के सिद्ध हो जाते हैं ।
२) जब काल-निर्णय में विचार साम्य को आधार माना जा सकता है तो हम यहाँ एक दो इससे भी पुरातनकालीन एवं समान वस्तु-हेतु रखने वाले उद्देश्य के तरफ ध्यान खींचना चाहेंगे । भद्रकीर्ति (बप्पभट्टी सूरि) की चतुर्विंशतिका (प्राय: ईस्वी ७७५-८००) का प्रारम्भिक पद्य भक्तामर के प्रथम पद्य के प्रभाव से प्रेरित हो, ऐसा भास होता है । यथा : नमेन्द्र मौलि गलितोत्तम पारिजात
- स्तुतिचतुर्विंशतिका, १ भक्तामरप्रणत-मौलि-मणिप्रभाणाम्
- भक्तामरस्तोत्र, १ और चतुर्विंशतिका का पद्य भी वसन्ततिलका वृत्त में ही निबद्ध है ।
तदतिरिक्त भक्तामर का चारों चरण "तुभ्य" शब्द से आरंभित होने वाला पद्य २६ की तरह ही भद्रकीर्ति के अभी अभी ज्ञात हुए एक अन्य स्तोत्र के दो पद्य है८ । भक्तामर ईस्वी ७७० के अरसे में पठन में होगा ।
३) पूज्यपाद देवनन्दी (प्राय: ईस्वी ६३५-६८०) के सुविश्रुत समाधितन्त्र के द्वितीय पद्य की भक्तामर के २५वें पद्य के संग तुलना करने से दोनों के बीच अर्थ की ही नहीं बल्कि कहीं-कहीं तो शब्दों की भी समानता दिखाई देती है । देवनन्दी एक आला दर्जे के लक्षणशास्त्री थे और बेजोड़ समासकार भी । वह अपना कथन हमेशा अपनी विशिष्ट संक्षेपणकला का आश्रय लेकर करते थे, इतना स्वरूप सम्बद्ध अभिगम का फर्क अलबत्ता इन दोनों के बीच जरूर उपस्थित है । तुलनार्थ दोनों के समान्तर पद्य यहाँ दिये जाते हैं -
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिवमार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ।।
__ - भक्तामरस्तोत्र २५. और
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती
विभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहितुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ।।
- समाधितन्त्र २.
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