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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
ही लिया हो । उपरोक्त दो प्रमाणों से सिद्ध है कि मानतुंग का भक्तामरस्तोत्र ईस्वी १२वीं शताब्दी में काफ़ी प्रसिद्ध था ।
कापड़िया महोदय ने एक और प्राचीन उल्लेख परमारराज भोज और उनके उत्तराधिकारी जयसिंह के समकालीन, प्रसिद्ध दिगम्बर व्याख्याकार एवं दार्शनिक विद्वान् प्रभाचन्द्र की क्रियाकलापटीका में बताया है; वहाँ मानतुंग का उल्लेख महाकवि के रूप में किया गया है । ठीक इसी उल्लेख का निर्देश प्रा० कापड़िया के ३४ वर्ष पश्चात् डा० नेमिचन्द्र शास्त्री२, और उनके आधार पर उनसे ११ वर्ष बाद डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने भी किया है, और उन्होंने वहाँ प्रस्तुत टीका का वर्ष कोष्ठक में ईस्वी १०२५ दिया है।३ ।
इससे भी प्राचीन काल में इस स्तोत्र की ख्याति से सम्बन्धित हम यहाँ एक ऐसा प्रमाण प्रस्तुत करेंगे जो मानतुंग के समय पर गौर करने वाले विद्वानों के ध्यान में अब तक नहीं आया । धर्मदासगणि की उपदेशमाला (प्राय: ईस्वी ६ठी शती मध्य) की २३०वीं गाथा के “थवत्थुई" शब्द की व्याख्या में सिद्धर्षि (कार्यकाल प्राय: ईस्वी ८८०-९२० या -९१२) ने उदाहरणरूपेण भक्तामरस्तोत्र का उल्लेख किया है । यथा :
"स्तवा भक्तामराद्याः स्तुतयो याः" इस आधार से नि:शंक कहा जा सकता है कि ईसा संवत् के नवम-दशम शतक में भी भक्तामर की भारी प्रतिष्ठा थी, कारण कि सिद्धर्षि जैसे आरूढ़ विद्वान् भी दृष्टांत रूप में और किसी स्तुत्यात्मक कृति को न लेकर भक्तामर के प्रति ही अंगुलि-निर्देश करने को बाध्य हो जाते हैं । स्तोत्र, इस कारण निर्ग्रन्थ विश्व में अत्यन्त जनप्रिय होने के अतिरिक्त उस समय में भी प्राचीन माना जाता रहा होगा ।
यकॉबी महाशय के प्रश्न का उत्तर कुछ हद तक तो इसमें से ही मिल जाता है । बाह्य प्रमाणों से भक्तामर की उत्तरावधि को ईस्वी १२७७ से हटाकर इससे करीब ३७५ वर्ष पीछे अब हम ले जा सकते हैं । दूसरी ओर कीथ महोदय ने मानतुङ्ग को बाण-मयूर के समय से करीब १५०-२०० साल बाद में होने की सम्भावना तो व्यक्त की है, किन्तु ऐसी धारणा के लिये कोई आधार नहीं बताया । स्तोत्र की शैली निश्चय ही प्राक्मध्यकाल से पूर्व की है । लेकिन स्तोत्र वास्तव में कितना पुराना है इसका विनिश्चय तो उसके कलेवर का परीक्षण करने से ही सम्भव हो सकता है । प्रथम दृष्टिपात से भी भक्तामर की संरचना एवं शैली निश्चयतया प्राकमध्यकाल से भी पूर्व की दिखाई देती है । इस सम्बन्ध में जो कुछ नये प्रमाण यकॉबी के बाद के विभिन्न विद्वानों के प्रयास से सामने आये हैं, और कुछ हमारे ध्यान में भी आये हैं, वे यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
१) कटारिया महानुभाव का कहना है कि (पञ्चस्तूपान्वयि स्वामी वीरसेन-शिष्य) भगवजिनसेन का आदिपुराण (ईस्वी ८३७ बाद) के पर्व ७, २९३-३११ का वर्णन भक्तामरस्तोत्र से मिलता है।
और पं० अमृतलाल शास्त्री ने भक्तामर का ३०वाँ एवं आदिपुराण का ७.२९६ वाँ पद्य उटैंकित करके दोनों के आशय की समानता के प्रति निर्देश किया है१६ । यदि यह ठीक है तो मानतुंगसूरि ईस्वी नवम
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