________________
स्तोत्रकर्ता का समय
या हरिभद्र जैसे प्राचीन कर्ताओं की कृतियों में न पाया जाय तब तक निश्चयपूर्वक इतना ही कहा जा सकता है कि ईस्वी १३वीं शताब्दी के अन्तभाग में [यानि प्रभावकचरित-जो मानतुंग कथा से सम्बद्ध सबसे पुराना स्रोत है—की रचना के समय में] मानतुंग को एक पुरातन आचार्य माना जाता था।" बात तो ठीक है, किन्तु आगमिक भाष्य गाथामय एवं प्राकृत भाषा में निबद्ध होते थे और अपनी संगठन-प्रकृति एवं भाषा-भिन्नता के कारण भक्तामर का उद्धरण या पद्य का समावेश वहाँ संभव नहीं।
और बहुत से पुराने भाष्यों की रचना मानतुंगाचार्य के समय से पूर्व ही हो चुकी होंगी, ऐसी भी सम्भावना है । दूसरी ओर प्राकृत चूर्णिकारों एवं संस्कृत वृत्तिकारों ने जो उद्धरण दिए हैं वे विशेषकर आगमिक सिद्धान्तों, दार्शनिक स्थापनाओं, उपदेशात्मक सूत्रों के समर्थक पद्यों, एवं नीतिपरक सुवाक्यादि के रूप में हैं । क्योंकि सिद्धसेन और समन्तभद्र की स्तुतियाँ दर्शनप्रवण हैं इसलिए इनमें से कभी कभी सन्दर्भयोग्य उद्धरण वहाँ मिल जाता है । किन्तु भक्तामर एवं भयहरस्तोत्र विशुद्ध भक्तिपरक रचनाएँ हैं। यदि वे कुछ चूर्णियों के पूर्व बन भी चुकी हों तो भी बिना अवसर या प्रसंग के सिवा, व्याख्याकार उनमें से उद्धरण नहीं देंगे, न दे सकते हैं । ठीक यही बात हरिभद्र के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है । जैसा कि आगे देखेंगे, भक्तामर के जो कुछ उद्धरण दिये हैं, वे सब निर्ग्रन्थकृत काव्यशास्त्रों की व्याख्याओं के उपलक्ष्य में ही हैं और वे सब उपलब्ध रचनाएँ मध्यकालीन हैं ।
यद्यपि कापड़िया जी ने यकॉबी महोदय के उपरोक्त कथन का कोई उत्तर अपनी प्रस्तावनाओं में नहीं दिया है, फिर भी उन्होंने अन्य कर्ताओं द्वारा भक्तामर के कुछ उल्लेख एवं स्तोत्र के पुराने उद्धरण प्रकाशित किये हैं, जो कुछ हद तक साम्प्रत सन्दर्भ में उपयुक्त सिद्ध हो सकते हैं । इनमें श्वेताम्बर काव्यशास्त्री वाग्भट्ट कृत वाग्भट्टालंकार (प्राय: ईस्वी ११२०-२५) पर खरतरगच्छीय सिंहदेव गणि की वृत्ति (जिसमें भक्तामर का ११वाँ पद्य उद्धृत है), या खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि की उवसग्गहरथोत्त की टीका एवं कर्पूरमंजरीटीका जिसमें भक्तामर का दसवाँ पद्य उट्टंकित है, समाविष्ट है । परन्तु वे दोनों कर्ता प्रभावकचरितकार प्रभाचन्द्र के बाद के हैं । दूसरी ओर दिगम्बर काव्यशास्त्री नेमिकुमार के काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ टीका (ईस्वी १३वीं शताब्दी अन्तिम चरण) के “माधुर्याधिकार" में भक्तामर का ११वाँ पद्य उद्धृत है । पर उसके कर्ता संभवत: प्रभावकचरितकार प्रभाचन्द्र का लघुवयस्क समकालिक है, पूर्ववर्ती नहीं ।
प्रभाचन्द्र से पूर्ववर्ती उल्लेखों में एक तो है पौर्णमिक मुनिरत्न सूरि का । अपनी कृति अममस्वामिचरित (ईस्वी ११६९) की उत्थानिका में उन्होंने अपने सम्प्रदाय के अनेक पूर्व कवि-सूरियों के संग ‘मानतुंग' का भी यथोचित स्मरण किया है, यथा :
मानतुंग-देवभद्रसूरि स्तुत्यौ मरालवत् ।।
ऊषतुर्मानसे यौ श्री सातवाहन-भोजयोः ।।२३।। ___ मुनिरत्नसूरि के समकाल में पूर्णतल्लगच्छीय आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ अलंकारचूडामणिवृत्ति में भक्तामरस्तोत्र का ११वाँ पद्य उटुंकित किया है और सम्भव है कि दिगम्बर कवि नेमिकुमार, जो हेमचन्द्र की इस कृति से परिचित थे, उन्होनें वही पद्य अपनी वृत्ति में हेमचन्द्र से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org