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स्तोत्रकर्ता का समय
___ मानतुंगसूरि के समय के विषय में अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया । क्वकेनबॉस महोदय ने (संभवत: श्वेताम्बर पट्टावलियों के आधार पर) उनका समय ईस्वी ३०० के आस-पास मान लिया था', किन्तु जो कथाएँ उनको उज्जयिनी के भोज का समकालिक कहती हैं, वह उन्हें सहसा ईस्वी ११वीं शती के पूर्वार्ध में रख देती हैं । परन्तु विद्वानों के अभिप्रायों में सरसरी तौर पर मानतुंग का समय ईस्वी सप्तम शतक का पूर्वार्ध माना जाता है; श्वेताम्बर चरितकार प्रभाचन्द्र द्वारा उन्हें बाण, मयूर और हर्ष के समकालिक बताना ही इसका आधार है । जो लोग शैली की दृष्टि से विचार करते हैं वे इन्हें ईस्वी सन् की सप्तम शती से अर्वाचीन नहीं मानते ।
उत्तर-मध्यकालीन तपागच्छीय एवं अन्य गच्छों की पट्टावलियाँ जो उन्हें विक्रम की तीसरी शती में रखती हैं, वह रचयिताओं की कल्पना मात्र है । उसकी नि:सारता के बारे में जो चर्चा यकॉबी महोदय कर गये हैं, पठनीय है । हम भी पीछे विस्तार से इस विषय में आलोड़न कर चुके हैं । दूसरी ओर कापड़िया जी ने अपने भक्तामरादि-स्तोत्रत्रयी की संस्कृत भूमिका में यह कह कर कि मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमण के दौरान अनेक ग्रन्थादि नष्ट हो जाने से मानतुंगाचार्य के समय को स्पष्ट करने वाले प्रमाण नहीं मिले, इस विषय में अपनी लाचारी व्यक्त की है । इसके कई साल बाद अपने एक अन्य प्रकाशन में भक्तामरस्तोत्र के शीर्षक के पश्चात् कोष्ठक में उनका समय विक्रम की ८वीं शताब्दी दिया है और वहीं दूसरी जगह पर मानतुंग को हेमचन्द्र से करीब डेढ़ सौ साल पहले होने का भी जिक्र किया हैं ।
ठीक यही हालत दिगम्बर विद्वानों की भी है । उनके पास भी ऐसा कोई साधन नहीं जिसके आधार पर थोड़ा बहुत विश्वस्त निर्णय कर सकें । हाँ, बहुत बाद के (१७वीं शती के) दिगम्बर लेखन में मानतुंग को महाकवि धनंजय के गुरु के रूप में बताया गया है और यह बात मान लेने पर उनका समय सप्तमशती का उत्तरार्ध माना जा सकता है, लेकिन ऐसा मानने के लिए कोई ठोस प्रमाण की आवश्यकता है, जबकि स्वयं धनंजय ने अपनी कृतियों में मानतुंग को अपने गुरु रूपेण कहीं नहीं बताया, न ही किसी प्राक-मध्यकालीन एवं मध्यकालीन दिगम्बर स्रोत में ऐसा ज़िक्र मिलता है।
निर्ग्रन्थ विद्वानों की यह स्थिति रही है । विदेशी विद्वानों की इस विषय पर क्या राय रही वह देखें तो कीथ महोदय का कहना था कि मानतुंग बाण के समकालीन हो सकते हैं, परंतु उनका काल १५०-२०० साल बाद का हो सकता है । किन्तु विन्टरनिट्स महाशय का कथन रहा कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में उसकी भारी प्रतिष्ठा होने से वह सापेक्ष दृष्ट्या प्राचीन हो सकता है जबकि ग्लसनेप्प उनका समय अनिर्णित मानते थे । दूसरी और यकॉबी महोदय ने यह कहकर इस विवाद से अपना हाथ खींच लिया है कि “जब तक भक्तामर या भयहर का कोई उद्धरण या निर्विवाद उल्लेख चूर्णियों, भाष्यों
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