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________________ [ ४४ ] • उपकेशगच्छ के अपवाद को छोड़कर आज पार्न की परंपरा के न तो श्रमण और श्रमणियाँ हैं और न उपासक तथा उपासिकायें । यह निर्विवाद सत्य है महावीर के पश्चात् भी पार्श्वनाथ की परम्परा का स्वतन्त्र रूप से कुछ समय तक अस्तित्व रहा हो, किन्तु हमें ऐसा कोई साहित्यिक एवं अभिलेखीय आधार प्राप्त नहीं होता है, जिसे पार्श की परम्परा को महावीर के पश्चात् भी स्वतन्त्र रूप से जीवित रहने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके । यद्यपि अनुश्रुति के रूप में उपकेश गच्छ को पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध माना जाता है । वे अपनी पट्टावली में भी अपने को सीधे पार्श्वनाथ की परम्परा से जोड़ते हैं । 1 28 किन्तु अनुश्रुति के अतिरिक्त इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है । उनके आचार-व्यवहार में भी ऐसा कोई तथ्य नहीं है, जो कि महावीर की परम्परा से पृथक् उनकी पहचान - बनाता हो । पार्श्व की स्वतन्त्र परंपरा के विलुप्त होने की दो ही स्थितियां हो सकती हैं या तो पार्श्व के सभी श्रमण श्रमणियाँ और उपासक सामूहिक रूप से महावीर की परंपरा में सम्मिलित हो गये हो या जिन कुछ लोगों अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाये रखने का प्रयत्न किया हो वे इतने समर्थं न रहे हों कि अपनी परंपरा को जीवित बनाये रख सकें । फलतः धीरे-धीरे उनकी परम्परा समाप्त हो गयी । अर्धमागधी आगम साहित्य में जिन पाश्र्वापत्यों के उल्लेख हमें मिलते हैं उनमें से अधिकांश के सम्बन्ध में यही उल्लेख है कि उन्होंने पार्श्व की परम्परा को त्याग कर महावीर की परम्परा को स्वीकार कर लिया । यद्यपि कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें * परम्परा परिवर्तन के संकेत नहीं मिलते। फिर भी ऐसा लगता है कि पार्श्व के अनुयायियों का बहुसंख्यक वर्ग महावीर के अनुयायियों के द्वारा पार्श्व को अपना पूर्ववर्ती तीर्थंकर स्वीकार करने के साथ ही उनकी परंपरा में आ गया होगा । जैन धर्म में श्वेताम्बर परंपरा का जो विकास हुआ है हमारी दृष्टि में उसके पीछे मूलतः पाश्र्वापत्यों - का ही अधिक प्रभाव रहा हो । श्वेताम्बर आगम साहित्य में छेद- सूत्रों में जो श्रमणों के आचार संबंधी नियम हैं उनको देखने से ऐसा लगता है कि पाश्aपित्य परंपरा के श्रमणों को अपने साथ बनाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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