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रखने के लिए ही इस प्रकार महावीर की कठोर आचार परंपरा कौं समाप्त कर दिया गया था । छेदसूत्रों में श्रमणों के आचार संबंधी नियमों में क्षुर मुण्डन, छत्रधारण, पात्र, उपानह, चमड़े की थैलिया आदि रखने के जो विधान पाये जाते हैं वे निश्चित रूप से पार्श्व की परंपरा से ही सम्बन्धित हैं ।" क्योंकि महावीर की परंपरा में यह सब प्रचलित नहीं था । आज भी श्वेताम्बर जैन श्रमण श्रमणियां इन सब का उपयोग नहीं करते हैं । यह एक सामयिक व्यवस्था ही रहीं होगी जबकि पार्श्वापत्य परम्परा के अधिकांश श्रमण महावीर की परंपरा के साथ जुड़े होंगे । मात्र यही नहीं हरमन जैकोबी ने इस बात की भी संभावना व्यक्त की है कि जैनों में जो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों का मतभेद है, वह मूलतः पाश्र्वापत्यों और महावीर के अनुयायियों का मतभेद है । उनके अपने ही शब्दों में " यद्यपि केशी और गौतम के सम्वाद में दोनों परम्पराओं के मूल मतभेद व्रतों की संख्या और वस्त्र के उपयोग - अनुपयोग पर उठाया गया था, किन्तु बिना किसी गम्भीर विवाद के मूलभूत नैतिक आदर्शों की एकरूपता द्वारा इसे सुलझा लिया गया था । यद्यपि दोनों ही परम्पराओं के अपने आग्रह थे । किन्तु दोनों में कोई विरोध नहीं था । मात्र यही नहीं पार्श्व की परम्परा के अनुयायी महावीर की व्यवस्था को स्वीकार करते थे । यद्यपि यह कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने पञ्च महा-व्रतों और सप्रतिक्रमण धर्म को स्वीकार करने के साथ ही साथ कुछ अपनी प्राचीन परम्पराओं को यथावत् बनाये रखा था, विशेष रूप से वस्त्र के उपयोग की परम्परा का; जिसका कि महावीर ने पूर्ण निषेध कर दिया था । इस स्वीकृति के साथ हम श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के विभाजन का भी एक आधार देख सकते हैं । यद्यपि दोनों ही सम्प्रदाय दूसरे की उत्पत्ति के बारे में परस्पर विरोधी कथाओं का उल्लेख करते हैं किन्तु यह एक आकस्मिक घटना नहीं है । पार्श्व और महावीर की संघ व्यवस्था का मूल विवाद ही इस विभाजन के रूप में प्रकट हुआ है । 180 हरमन जैकोबी के उपर्युक्त कथन में बहुत कुछ. सत्यता है । यदि महावीर के युग में सचेलक और अचेलक परम्परा का समन्वय सम्भव था तो आज भी इस विषय पर बहुत कुछ सोचा और किया जा सकता है । शर्त यही है कि हमारी भावनाएँ उदार हों और
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