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________________ [ ४३ ] श्रमणों में विरोध था। एक ओर महावीर के अनुयायी पापित्यों को शिथिलाचारी मानकर आलोचना करते थे तो दूसरी ओर पार्श्व के अनुयायी महावीर के तीर्थंकर एनं सर्वज्ञ होने में सन्देह करते थे। यहाँ तक कि वे महावीर और उनके श्रमणों के प्रति वन्दन व्यवहार जैसे सामान्य शिष्टाचार के नियमों का पालन भी नहीं करते थे। भगवतीसूत्र के अनुसार कालस्यवेशीय, गांगेय आदि पाश्र्वापत्य महावीर के पास जाते हैं किन्तु बिना वन्दन व्यवहार किये ही सीधे उनसे प्रश्न करते हैं;12 जब उन्हें इस बात का विश्वास हो जाता है कि महावीर पार्व की कुछ मान्यताओं को स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकर या जिन के रूप में स्वीकार करते हैं तो वे पंचयाम एवं सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करके उन्हें वन्दन नमस्कार करते हैं और उनके संघ में सम्मिलित हो जाते हैं। इस बात के भी स्पष्ट संकेत हैं कि पार्श्व के अनुयायियों में जहां कुछ महावीर से मिलने के पश्चात् उनके संघ में सम्मिलित हो जाते हैं, वहां कुछ महावीर से मिलने के बाद भी अपनी परंपरा का त्याग नहीं करते। उत्तराध्ययन और राजप्रश्नीय में पापित्यीय श्रमण केशी का उल्लेख हमें जहां एक ओर इस बात का सङ्कत देता है कि महावीर के समय में पापित्यीय श्रमण लोक प्रतिष्ठित थे वहीं दूसरी ओर यह भी संकेत मिलता है कि पार्श्व की परम्परा के अनेक गृहस्थ और श्रमण महावीर की परंपरा में सम्मिलित हो रहे थे और दोनों परंपराओं के बीच एक समन्वय का सेतु भी बनाया जा रहा था। उत्तराध्ययन का केशीगौतमीय नामक तेईसवां अध्ययन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि किस प्रकार पार्श्व और महावीर के अनुयायी परस्पर मिलकर आपसी विवादों का समन्वय एवं समाधान करते थे। आवश्यकचूणि में उल्लेखित घटनाएं यद्यपि अनुश्रुतिः प्रधान हैं, फिर भी वे इस तथ्य की अवश्य सूचक हैं कि पापित्य श्रमण और गृहस्थ उपासक महावीर और उनके श्रमणों की आपत्ति काल में सहायता करते थे और दोनों परंपराओं में संबन्ध मधुर थे। पार्श्व की परंपरा वर्तमान काल में सभी श्रमण-श्रमणियाँ तथा गृहस्थ उपासक या उपासिकायें अपने को तीर्थंकर महावीर की परंपरा से संबद्ध मानते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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