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[ ४२ ] श्रमणों के उल्लेख हमें मिलते हैं । आवश्यकचूणि की सूचना के अनुसार गोशालक का कूपनख नामक एक कुम्भकार की शाला में पापित्य श्रमण मुनिचन्द्र से मिलने का उल्लेख है। गोशालक उनकी आलोचना भी करता है। इसी प्रकार आवश्यकचूर्णि में ही पापित्य श्रमण नन्दिसेन का उल्लेख मिलता है।130 ऐसे भी पापित्य श्रमणों के उल्लेख हैं जो श्रमणाचार से शिथिल होकर निमित्त शास्त्र आदि के द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे। ऐसे निमित्तवेत्ता पार्वापत्यों में उत्पल का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि में हमें मिलता है। आवश्यकचूर्णि के उल्लेख के अनुसार शोण कलिन्द, कर्णिकार, अछिद्र, अग्निवैशम्पायन और अर्जुन ये छह निमित्तवेत्ता पाश्र्वापत्य परंपरा के ही थे। अर्जुन का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में भी मिलता है, भगवतीसूत्र में अर्जुनगोतमीयपुत्र को तीर्थङ्कर पार्श्व का अनुयायी बताया है, जो आगे चलकर गोशालक का अनुयायी हो जाता है।193 गोशालक द्वारा अर्जुन का शरीर ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है।124 इससे ऐसा फलित होता है कि अर्जुन पहले पार्श्व की परम्परा का अनुयायी था बाद में आजीवक परम्परा का अनुयायी बना। आवश्यकनियुक्ति में सोमा, जयन्ती, विजया और प्रगल्भा नामक ऐसी चार पापित्यीय परिव्राजिकाओं के भी उल्लेख मिलते हैं।12। इन्होंने महावीर और गोशालक को वहाँ के राजकीय अधिकारियों के द्वारा गुप्तचर समझकर पकड़े जाने पर छुड़वाया था। - इस प्रकार हमें अर्धमागधी आगम साहित्य में अनेक पापित्य श्रमण-श्रमणियों और श्रमणोपासकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिससे यह भी ज्ञात होता है कि पाश्र्वापत्य श्रमण और महावीर के श्रमण एक दूसरे से मिलते थे, तत्त्व-चर्चायें करते थे। यद्यपि अनेक प्रश्नों पर वे परस्पर सहमति रखते थे किन्तु कुछ प्रश्नों पर उनका मतवैभिन्य भी था। फिर भी कठिनाइयों में वे एक दूसरे को सहयोग देते थे। महावीर और पावं की परम्परा के पारस्परिक सम्बन्ध
सूत्रकृतांग और भगवती में उपलब्ध सन्दर्भो से हमें इस बात के स्पष्ट सङ्कत मिलते हैं कि प्रारम्भ में पापित्यों और महावीर के
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