________________
[ ४१ ] राजप्रश्नीय में श्वेताम्बिका के राजा प्रदेशी को पापित्यीय श्रमण केशिकुमार के द्वारा उपदेश दिये जाने का भी उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी पापित्यीय श्रमण केशी और महावीर के प्रधान शिष्य गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख प्राप्त होता है । राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन के उल्लेख से ऐसा लगता है कि केशी पापित्य परंपरा के एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं । कथाओं में केशी को पार्श्व की परंपरा का चतुर्थ पट्टधर कहा गया है । पार्श्वनाथ की परंपरा में प्रथम पट्टधर शुभदत्त थे। उनके पश्चात् आचार्य हरिदत्त हुए। तीसरे पट्टधर आर्य समुद्र और चौथे पट्टधर आर्य केशी । हए । यद्यपि इस में आर्य समुद्र और हरिदत्त ऐसे नाम हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है किन्तु केशी की ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में सन्देह करने का हमें कोई कारण नहीं लगता है। केशी की ज्ञान सामर्थ्य और बुद्धि गाम्भीर्य का पता राजप्रश्नीय में राजा प्रदेशी से तथा उत्तराध्ययन में गौतम से हुई विचार-चर्चा से लग जाता है। ऐतिहासिक दष्टि से त्रिपिटक साहित्य का पयासी सुत्त और राजप्रश्नीय के पएसी संबंधी विवरण महत्वपूर्ण रूप से तुलनीय हैं और वे उस घटना की ऐतिहासिकता को भी प्रमाणित करते हैं । यह पयासी या पएसी प्रसेनजित् ही होना चाहिए, जो ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।
यह अलग बात है कि बौद्धों ने इसे अपने ढंग से मोड़ लिया है जबकि राजप्रश्नीय में इसे यथावत् रखा गया है। ऐसा लगता है कि उस काल में यह कथाप्रसंग बहुत चचित रहा होगा जिसे दोनों परंपराओं ने ग्रहण कर लिया था।
बौद्ध परंपरा अनात्मवादी थी, इस कारण आत्मा की नित्यता को सिद्ध करना उनके लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि उन्होंने अपने पुनर्जन्म की सिद्धान्त की पुष्टि के लिये अपने ढंग से इसे मोड़ने का प्रयत्न किया है। जबकि जैनों ने इसे आत्मवाद में विश्वास रखने के कारण यथावत् रखा है इससे इतना निश्चित होता है कि पावापत्यों की एक सुव्यवस्थित परंपरा महावीर और बुद्ध के काल तक चली आ रही थी।
इन उल्लेखों के अतिरिक्त आवश्यकचूणि में भी पापित्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org