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________________ [ ३८ ] पार्श्वस्थ कहते हैं । 104 इस व्याख्या से यह तो स्पष्ट होता है कि जो श्रमणों के निकट रहते हैं वे पार्श्वस्थ हैं। साथ ही यह भी कि पार्श्वस्थों का आचार अन्य श्रमणों की अपेक्षा निम्न होता था । भगवतीआराधना और मूलाचार में पार्वस्थ को शिथिलाचारी मुनि के रूप में ही ग्रहण किया गया है। भगवतीआराधना में कहा गया है कि कुछ मुनि जब इन्द्रियरूपी चोरों से और कषायरूपी हिंसकों से तथा आत्मा के गुणों का घात करने वालों से पकड़े जाते हैं तो वे साधु का पद त्यागकर पार्श्वस्थों के पास चले जाते हैं। भगवतीआराधना और उसकी विजयोदया टीका में कहा गया है कि 'अतिचार रहित संयम का स्वरूप जानकर भी जो उसमें प्रवृत्ति नहीं करता है' किन्तु संयम मार्ग के समीप ही रहता है यद्यपि वह एकांत से असंयमी नहीं है परन्तु निरतिचार संयम का पालन भी नहीं करता है इसलिए उसे पावस्थ कहते हैं ? पुनः जो उत्पादन और एषणा दोष सहित आहार का ग्रहण करते हैं, एक ही वस्तिका में रहते हैं, एक ही संस्तर में सोते. हैं, एक ही क्षेत्र में निवास करते हैं, गृहस्थों के घर अपनी बैठक लगाते हैं, सूई-कैंची आदि वस्तुओं को ग्रहण करते हैं तथा सीना, धोना, रंगना आदि कार्यों में तत्पर रहते हैं ऐसे मुनियों को पार्श्वस्थ कहते हैं। पुनः जो अपने पास क्षार-चूर्ण, सोहाग-चूर्ण, नमक, घी वगैरह पदार्थ कारण न होने पर भी रखते हैं उन्हें पार्श्वस्थ कहा जाता है । 105 भगवतीआराधना टीका की यह व्याख्या इस बात को . ही स्पष्ट करती है मुनि आचार नियमों में ही जो शिथिल होते हैं वे पार्श्वस्थ कहे जाते हैं । यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परंपरा के मुनि यह सब कार्य करते थे और महावीर के अनुयायी इन कार्यों को श्रमणआचार के अनुरूप नहीं मानते थे। इसी कारण आगे चल कर शिथिलाचारी मुनियों के अर्थ में ही पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग होने लगा। . किन्तु हमें यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि अर्धमागधी आगम साहित्य में जहाँ स्पष्ट रूप से पार्श्व की परंपरा के श्रमणों का निर्देश है वहाँ उन्हें 'पासत्थ (पावस्थ) नहीं कह कर पासावच्चिज्ज (पार्खापत्यीय) ही कहा गया है। जबकि जहाँ शिथिलाचारी श्रमणों का उल्लेख है वहां सदैव पासत्थ शब्द का प्रयोग है। यद्यपि पुलाक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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