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________________ [ ३७ ] श्रमण भी निर्ग्रन्थ कहलाते थे, मात्र इसी आधार पर हम उन्हें पार्श्वनाथ की परम्परा का मान सकते हैं। पार्श्व के अनुयायियों के लिए आगम साहित्य में हमें 'पासावच्चिज्ज' (पाश्र्वापत्यीय) और पासत्थ (पार्श्वस्थ) इन दो शब्दों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि दोनों ही शब्दों का अर्थ 'पार्श्व के अनुयायी हो सकता है, किन्तु हम यह देखते हैं कि जहाँ पार्श्व के अनुयायियों को सम्मानजनक रूप में प्रस्तुत करने का प्रश्न आया, वहाँ 'पासावच्चिज्ज' शब्द का प्रयोग हुआ और जहाँ उन्हें हीन रूप में प्रस्तुत करने का प्रसङ्ग आया है वहां उनके लिये 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है100 'पासत्थ' शब्द का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ होता है जिसका सामान्य अर्थ 'पान के संघ में स्थित' ऐसा हम कर सकते हैं किन्तु जैन परंपरा में आगमिक काल से ही पार्श्वस्थ (पासत्थ) शब्द शिथिलाचारी साधुओं के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सूत्रकृतांग में 'पासत्थ' शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । 101 आज जैन श्रमण के लिये सबसे अपमानजनक शब्द यदि कोई है तो वह उसे 'पासत्था' कहना है। व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से प्राकृत पासत्थ का संस्कृत रूप 'पाशस्थ' अर्थात् पाश में बंधा हुआ मानकर हम उसका अर्थ शिथिलाचारी या दुराचारी भी कर सकते हैं । 100 किन्तु उसका संस्कृत रूप 'पार्श्वस्थ' मानने पर उसका स्पष्ट अर्थ दुराचारी य शिथिलाचारी श्रमण ऐसा नहीं होता है। पार्श्वस्थ शब्द का तात्पर्य मात्र पार्ब या बगल में स्थित होता है । 103 यद्यपि 'पार्श्व में स्थित' होने का अर्थ कुछ हटकर भी हो सकता है। इसी आधार पर सामान्यतया पाश्र्वस्थ का अर्थ सुविधावादी या शिथिलाचारी किया जाने लगा होगा। उपलब्ध आगमिक आधारों से यह एक सुनिश्चित सत्य प्रतीत होता है कि पार्श्व की परंपरा के श्रमण महावीर के युग में अपने आचार नियमों में पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी थे। अतः कठोर आचार मार्ग का पालन करने वाले महावीर के श्रमणों को वे शिथिलाचारी लगते होंगे और इसीलिये पावस्थ शब्द अपने मूल अर्थ को छोड़कर शिथिलाचारी श्रमण के लिए प्रयुक्त होने लगा। चारित्रसार में कहा गया है कि जो मुनि वस्तिकाओं में रहते हैं, उपकरणों को ग्रहण करते हैं और मुनियों के समीप रहते हैं उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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