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________________ [ २४ ] जीव दो प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं (सुख रूप और दुःख रूप ) । प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होकर जीव सुख का वेदन करता है। इसके विपरीत हिंसा आदि कृत्यों से जीव भय और दुःख को प्राप्त होता है। जिसने अपने कर्तव्य मार्ग का निश्चय कर लिया है, जो संसार में जीवन निर्वाह के लिये निर्जीव पदार्थों का ही आहार करता है, जिसने आस्रवों के द्वार बन्द कर लिये हैं ऐसा भिक्षु इस संसार प्रसूत वेदना का छेदन करता है । संसार / भव भ्रमण का नाश करता है और भव-भ्रमण जन्य वेदना का नाश करता है । उसका संसार समाप्त हो जाता है और उसकी सांसारिक वेदना अर्थात् संसार के दुःख भी समाप्त हो जाते हैं । वह बुद्ध, विरत, विपाप और शान्त होता है और पुनः संसार में जन्म नहीं लेता है । "78 ऋषिभाषित में पार्श्व की मान्यताओं को पाठभेद से दो प्रकार से प्रस्तुत किया गया है । इसी 'ग्रन्थ में गति व्याकरण' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध पाठ के आधार पर पार्श्व की मान्यताओं को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है - " जीव और पुद्गल दोनों ही गतिशील हैं । गति दो प्रकार की है- प्रयोगगति ( परप्रेरित) और वित्रसागति । ये ( स्वतः प्रेरित) गतियाँ जीव और पुद्गल दोनों में ही होती हैं । औदायिक और पारिणामिक – ये गति के रूप है और गमनशील होने से इसे गति कहते हैं । जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुद्गल अधोगामी । पाप कर्मशील जीव परिणाम ( मनोभाव ) से गति करता है और वह पुद्गल की गति में प्रेरक भी होता है । जो पापकर्मों का वशवर्ती है वह कभी भी दुःख रहित नहीं होगा, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होगा । वे पाप कर्म प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक हैं । वह असम्बुद्ध अर्थात् ज्ञान रहित जीव कर्म के द्वारों को न रोकने वाला, चातुर्याम धर्म से रहित, आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थि को बाँधता है और उन कर्मों के विपाक के रूप में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति को प्राप्त करता है । जीव स्वकृत कर्मों के फल का वेदन करता है परकृत कर्मों का नहीं । सम्यक् सम्बुद्ध जीव कर्म आगमन के द्वारों को बन्द कर देने वाला, चातुर्याम धर्म का पालन करने वाला आठ प्रकार की कर्म-ग्रंथि को नहीं बाँधता है और इस प्रकार उनके विपाक के रूप में नारक, देव, मनुष्य और पशु गति को भी प्राप्त नहीं होता है इस प्रकार ऋषिभाषित के आधार पर । Jain Education International 179 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
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