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उसमें इस अध्याय के पाठान्तर को सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम हम ऋषिभाषित के इसी अध्याय के आधार पर पार्श्व के दर्शन और धर्म को समझने का प्रयत्न करेंगे ।
दार्शनिक दृष्टि से ऋषिभाषित में मुख्यतः लोक के स्वरूप की तथा जीव और पुद्गल की गति की, कर्म एवं उसके फल- विपाक की और विपाक के फलस्वरूप विविध गतियों में होने वाले संक्रमण की चर्चा की गयी है । आचार संबंधी चर्चा के सन्दर्भ में मुख्यरूप से इसमें चातुर्याम, निर्जीव भोजन और मोक्ष की चर्चा हुई है ।
पुनः प्रश्न उत्तर में
गया कि लोक कितने
गया है कि लोक चार लोक और भाव लोक ॥
"प्रथम प्रश्न है - लोक क्या है ? उत्तर में कहा गया है कि जीव और अजीव यही लोक हैं । प्रकार का है ? इस प्रश्न के प्रकार का है : द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, लोकभाव किस प्रकार का है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि लोकस्वतः अस्तित्ववान् है । स्वामित्व की दृष्टि से यह लोक जीवों का है । निर्माण की दृष्टि से यह लोक जीव और अजीव दोनों से निर्मित है । लोक भाव किस प्रकार का है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि यह लोक अनादि, अनिधन और पारिणामिक ( परिवर्तनशील ) है । इसे लोक क्यों कहा जाता है ? इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि अवलोकित या दृश्यमान होने से इसे लोक कहा जाता है। लोकव्यवस्था गति ( परिवर्तन ) पर आधारित है । गति सम्बन्धी प्रश्नों के प्रत्युत्तर में कहा गया है कि गमनशील होने से इसे गति कहा जाता है । जीव और पुद्गल दोनों ही गति करते हैं । यह गति भी चार प्रकार की है - द्रव्यगति, कालगति, क्षेत्रगति और भावगति । यह गतिभाव अर्थात् गति का चक्र अनादि और अनिधन है ।
किया
कहा
काल
इसी प्रसंग में पार्श्व के कर्म सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुद्गल अधोगामी । जीव कर्म प्रधान हैं और पुद्गल परिणाम प्रधान । जीव की गति कर्म से प्राप्त फल विपाक के द्वारा होती है और पुद्गल की गति परिणाम के विपाक (स्वाभाविक परिवर्तन) के द्वारा होती है । कोई भी कषाय अर्थात हिंसा से युक्त होकर शाश्वत सुख की प्राप्त नहीं कर सकता
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