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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य नागहस्ति, रेवतिमित्र, सिंह और नागार्जुन के बाद भूतिदिन्न और उनके बाद जिस 'कालक' का उल्लेख है वह कालक गर्दभिल्लोच्छेदक हो नहीं सकते क्यों कि द्वितीयोदयुगप्रधान-यन्त्र (पट्टावली समुच्चय, भाग १ पृ० २३-२४) देखने से मालूम होगा कि इस कालक का समय (आर्य वज्र के शिष्य) वज्रसेन से ३६३ वर्ष के बाद होता है जो ईसा की तृतीय शताब्दि के बाद होगा। धर्मसागरगणि की तपागच्छ-पट्टावली (पट्टावली-समुच्चय, भाग १, पृ० ४१-७७) में श्यामार्य वीरात् ३७६ में स्वर्गवासी हुए और उनके शिष्य जितमर्यादाकृत् सांडिल्य थे ऐसा लिखा है। आगे इन्द्रदिन्नसूरि के बाद, वीरात् ४५३ वर्ष में गईभिल्लोच्छेदक कालकसूरि का उल्लेख है। इस पट्टावली का रचनाकाल वि० स० १६४६ है। किन्तु यह तो बहुत पीछे की पट्टावली है। दुष्षमाकाल श्री श्रमणसङ्घस्तोत्र तो विक्रम की तेरहवीं शताब्दि का है । उस स्तोत्र की अवचूरि का समय निश्चित नहीं है। इस अवचूरि में निम्नलिखित विधान है--
xxxx मोरिअरज्ज १०८ तत्र-महागिरि ३० सुहस्ति ४६ गुणसुन्दर ३२, ऊनवर्षाणि १२ ॥ xxxx एवं (वीरनिर्वाणात् वर्षाणि ३२३॥
___ राजा पुष्यमित्र ३० बलमित्र-भानुमित्र ६० (तत्र)-गुणसुन्दरस्येव शेष वर्षाणि १२ कालिके ४ (४१) खंदिल ३८ ॥ एवं वर्षाणि ४१३ ॥
राजा नरवाहन ४० गर्दभिल्ल १३ शाक ४ (तत्र)-रेवतिमित्र ३६ अार्यमङ्गधर्माचार्य २० ।। एवं वर्षाणि ४७० ॥
अत्रान्तरे-बहुल सिरिव्यय स्वामि (स्वाति) हारित झ्यामाऽऽर्य शाण्डिल्य आर्य आर्यसमुद्रादयो भविष्यन्ति।
तह गद्दभिल्लरज्जस्स, छेयगो कालगारिलो होही।
छत्तीसगुणोवेश्रो, गुणसयकलिनो पहाजुत्तो ॥१॥ वीरनिर्वाणात् ४५३ भरुअच्छे खपुटाचार्याः वृद्धवादी पंचकल्पविच्छेदो जीतकल्पोद्धारः......॥
धर्माचार्यस्येव शेषवर्षाणि २४ भद्रगुप्त ३९ श्रीगुप्त १५ वज्रस्वामी ३६। एवं सर्वाङ्क ५८४ ॥ गईभिल्ल निवसुत विक्रमादित्य ६० धर्मादित्य ४० भाइल्ल ११॥ एवं ५८१ ॥ (पट्टावली-समुच्चय, १, पृ० १७).
इस अवचूरि अन्तर्गत गाथा में यह स्पष्ट नहीं है कि वीरात् ४५३ में (गर्दभिल्लोच्छेदक) द्वितीय कालक हुए। किन्तु विचारश्रेणि की गणनासे मिलती इस (अवचूरि की) नृपकालगणना से गर्दभिल्ल का समय वीरात् ४५३ होता है। मगर नृपकालगणना शङ्का से पर नहीं है, विक्रमादित्य को गई भिल्ल का पुत्र कहने के लिए कोई कालककथानक का या चूर्णि या भाष्य का प्रमाण उपलब्ध नहीं। और ४५३ में गर्दभिल्लोच्छेद करने वाले कालक के समय में बलमित्र-भानुमित्र हो नहीं सकते। फिर बलमित्र-भानुमित्र के बाद गर्दभिल्ल के १३ वर्ष गिनना और गर्दभिल्लों के १०० या १५२ वर्ष का मेल प्राप्त करने के लिए विक्रमादित्य, धर्मादित्य, भाईल्ल और नाइल को गर्दभिल्लवंश के मानना ये सब बातें अभी शङ्कायुक्त ही हैं। खुद मेरुतुङ्ग को भी दो बलमित्र-भानुमित्र होने का विचित्र अनुमान खींचना पड़ा।८८ श्रार्य खपुट का कार्यप्रदेश भरोच था, कालकाचार्य का भी भृगुकच्छ से सम्बन्ध है। मगर दोनों समकालीन थे (वीरात् ४५३) ऐसा जैन
. मेरुतुङ्ग लिखते हैं-" बलमित्रभानुमित्री राजानौ ६० वर्षाणि राज्यमका म्। यौ तु कल्पचूर्णौ चतुर्थीपर्वकर्तृकालकाचार्यनिर्वासको उज्जयिन्यां बलमित्रभानुमित्री तावन्यावेव।” इस विषय में मुनिश्री कल्याणविजयजी के विवेचन के लिए देखो, वीरनिर्वाण संवत्०, पृ० ५६-५७ और पादनोंध, जिसमें तित्योगाली पइन्नय के नाम से कैसी गाथायें पीछे के ग्रन्थों में घुस गई हैं इसका मुनिजी ने अच्छा विवेचन किया है।
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