________________
सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
३७ के समय में कुछ विरोध नहीं रह जाता।" ८५ मुनिश्री की यह समीक्षा तो शङ्का को बढ़ाती है कि गई. भिल्लोच्छेद की घटना वीरात् ४५३ में मानना शुरू हुआ तब से कालगणना में गड़बड़ हो गई। डा० ब्राउन दूसरे कालक के बारे में लिखते हैं
"Most versions make him the disciple of Gunākara (= the sthavira Guņasundara), but this must be an error; foron chronalogical grounds it must have been Kālaka I who was Gunākara's disciple."CE इससे तो यह मानना ज्यादा उचित है कि कथानकों से प्रथम कालक ही उद्दिष्ट हैं । डा. ब्राउन आगे लिखते हैं--
"The Kalpadruma and Samayasundara add an alternative tradition stating that Kālaka II was the maternal uncle of the kings Balamitra and Bhānumitra of Jain tradition, thus agreeing with a few versions of the Kālakāryakathā, although most of them identify the Kālaka who was the uncle of those kings with the Kālaka who changed the date of the Paryusana....The year of Kalaka II is by all authorities said to be 453 of the Vira era, in which year it is specifically stated in a stanza appended to three Mss. of Dharmaprabha's version that he took Sarasvati. Possibly the statement is slightly inaccurate and the date refers to his accession to the position of sūri, just as in other stanzas appended to Mss. of the same version the year 335, which is the date of accession to the position of sūri, is mentioned as that of Kālaka I. Dharmasāgaraganin assigns the deeds of Kalaka II to Kalaka I." पहले ही हम कह चुके हैं कि कथानकों में कालक का वर्ष नहीं बतलाया गया, किसी भाष्य या चुर्णि में भी नहीं। बलमित्र-भानुमित्र और पर्युषणातिथि के बारे में भी पहले समीक्षा की गई है। धर्मप्रभ की रचना सं० १३९८ में हुई, मूल रचना में गर्दभिल्लोच्छेदक कालक वीरात् ४५३ में हुए ऐसा नहीं है। मूल में तो--- "अह ते सग त्ति खाया, तव्वंसं छंदिऊण पुण काले। जात्रो विक्कमरात्रो, पुहवी जेणूरणी विहिया ॥ ३१ ॥"--इतना ही होने से विक्रम और कालक के बीच का समयान्तर अस्पष्ट है। डा० ब्राउन की तृतीय कालक की कल्पना ठीक नहीं है, मुनिश्री कल्याणविजयजी ने तृतीय कालक के विषय में ठीक ही समीक्षा की है। विस्तारभय से हम उस चर्चा को छोड़ देते हैं।
अब कथानकों को छोड़ कर पट्टावली आदि को देखें तो कल्पसूत्र स्थविरावली में दो कालक का कोई उल्लेख नहीं; और न इसमें किसी स्थविर के वर्ष अादि बताये गये। नन्दी-स्थविरावली जिसके प्राचीन होने में शङ्का नहीं है उसमें गर्दभिल्लोच्छेदक अन्य कालक का कोई उल्लेख नहीं है। दुष्षमाकाल श्री श्रमणसङ्घ स्तोत्र में 'गुणसुंदर, सामज, खंदिलायरिय' का उल्लेख है किन्तु गाथा १३ में आर्य वज्रसेन,
८५. मुनिश्री कल्याणविजय, “आर्य-कालक,” द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ११७. मुनिश्री के इस कथनानुसार, नि० सं० ४५३ में गई भिल्ल को हटा कर, (ई० स० पू०७४ में) शकराजा उज्जयिनी की गादी पर बैठा। और चार वर्ष के बाद नि० सं० ४५७ में ( ई० स० पू० ७० में ) बलमित्र ने उसको हटा कर उज्जयिनी पर अपना अधिकार जमाया। बलमित्र-भानुमित्र के राज्य का अन्त नि० सं० ४६५ ( ई० स० पू० ६२ ) में हुआ। वही, पृ० ११७ पादनोंध, १.
८६. ध स्टोरी ऑफ कालक, पृ० ६. ८७. ब्राउन, वही, पृ० ६, पृ० ७-११.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org