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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य कालक जैसे समर्थ पंडित और प्राभाविक श्राचार्य ऐसा कर नहीं सकते। उनको प्रतीति हुई होगी की ग्रीक राजकर्ताओं के सामने तत्कालीन भारतीय राजाओं से कुछ बनना मुश्किल था।
प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी नहीं बताया गया कि शकों को हरानेवाला विक्रमादित्य खुद गर्दभ-राजा का पुत्र था। यह मान्यता कुछ पीछे से बनी होगी। जब काल-गणना में गड़बड़ प्रतीत होती है उस समय के विधानों में यह मान्यता देखने में आता है। कालकाचार्यकथानकों में भी प्राचीन कथानकों में यह नहीं है। पीछे पादनोंध ७२ में हमने बतलाई हुई साक्षियों में कहीं भी विक्रम को गर्दभ का पुत्र नहीं कहा है। इस तरह गर्दभिल्लोच्छेद
और विक्रम के बीच कम अन्तर ही होना या मानना आवश्यक नहीं। वास्तव में डा० जयस्वालजी की भी ऐसी ही राय थी। उन्हों ने गई भिल्लोच्छेद् वाली घटना का निर्देश करके लिखा है
"This event is placed before the Vikrama era but no time is specified as to how long after the occupation of Ujjain and Mälvā the first Śaka dynasty came to an end. The Kathănaka expressly keeps it unspecified, as it says “Kālāntarena Kenai (ZDMG., 1880, p. 267; Konow, CII. II. p.
xxvii)."८२
जयस्वालजी इस गर्दभिल्लोच्छेद की घटना को ई० स० पूर्व १००-१०१ में रखते हैं। ८ ३
राजानों की कालगणना में जैन ग्रन्थों में भी कुछ गड़बड़ और अस्पष्ट बातें हैं। मुनिश्री कल्याणविजयजी (जिनके मत से, गर्दभिल्लोच्छेदक आर्य कालक वह दूसरे आर्य कालक थे और उनका समय वीरात् ४५३ था) इस घटना के बारे में लिखते हैं-"घटनाओं के कालक्रम में हमने गर्दभिल्लोच्छेदवाली घटना निर्वाण संवत् ४५३ में बताई है; पर इसमें यह शंका हो सकती है कि इस घटना के समय यदि बलमित्रभानुमित्र विद्यमान थे-जैसा कि ' कहावली' आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है तो इस घटना का उक्त समय निर्दोष कैसे हो सकता है ? क्यों कि मेरुतुङ्गसूरि की 'विचार-श्रेणि' आदि प्रचलित जैन-गणना के अनुसार बलमित्र-भानुमित्र का सत्ता-काल वीर-निर्वाण से ३५४ से ४१३ तक पाता है। ऐसी दशा में यह कहना चाहिए कि गर्दभिल्लोच्छेदवाली घटना का उक्त समय (४५३) ठीक नहीं है, और यदि ठीक है तो यह कहना होगा कि बलमित्र-भानुमित्र का उक्त समय गलत है। और यदि उपर्युक्त दोनों समय ठीक माने जायँ तो अन्त में यह मानना ही पड़ेगा की गई भिल्ल वाली घटना के समय बलमित्र-भानुमित्र विद्यमान न थे।"
मुनिजी आगे लिखते हैं-"गईभिलवाली घटना का समय गलत मान लेने के लिये हमें कोई कारण नहीं मिलता। बलमित्रभानुमित्र आर्य कालक के भानजे थे, यह बात सुप्रसिद्ध है; अत एव कालक के समय में इनका अस्तित्व मानना भी अनिवार्य है। रही बलमित्र-भानुमित्र के समय की बात, सो इसके सम्बन्ध में हमारा मत है कि उनका समय ३५४ से ४१३ तक नहीं, किन्तु ४१४ से ४७३ तक था। मौर्य-काल में से ५२ वर्ष छूट जाने के कारण १६० के स्थान में केवल १०८ वर्ष ही प्रचलित गणनात्रों में लिये गए हैं। अत एव एकदम ५२ वर्ष कम हो जाने के कारण बल मित्र आदि का समय असङ्गत-सा हो गया है। हमने मौर्य राज्य के १६० वर्ष मान कर इस पद्धति में जो संशोधन किया है, उसके अनुसार कालकाचार्य और बलमित्र
८२. डा० जयस्वाल, प्रॉब्लेम्स ऑफ शक-सातवाहन हिस्टरी, जर्नल ऑफ विहार ॲन्ड ओरिस्सा रिसर्च सोसाइटी, वॉ० १६ (ई० स० १६३०), पृ० २३४.
८३. वही, पृ० २३४ से आगे. ८४. इसके लिए देखो, मुनिश्री कल्याणविजयजी कृत वीरनिर्वाण-सम्वत् और जैन-कालगणना.
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