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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य ग्रन्थकारों का (मध्यकालीन पट्टावलियों के अलावा) कहीं भी उल्लेख नहीं। मौर्यों के १०८ वर्ष की हकीकत भी मान्य नहीं हो सकती। डा० जयस्वालजी के कथनानुसार अगर मौर्यों के शेष वर्ष रासभों में बढ़ा कर किसी तरह वीरात् ४७० में विक्रम का हिसाब जोड़ा गया तब यह स्पष्ट है कि इन पट्टावलियों की नृपकालगणना शहारहित नहीं है. इनमें और भी गलती हो सकती है। इस गड़बड़ का कारण यह है कि प्रथम शकराज्य के बाद कितने वर्ष व्यतीत होने पर विक्रमादित्य हुआ यह स्पष्ट मालूम न होने से विक्रम अोर कालक को नज़दीक लाने की प्रवृत्ति हुई। एक से ज्यादा कालक नामक प्राचार्य हुए होंगे किन्तु घटनाओं के नायक तो प्रथम कालक ही हैं जो कि अन्य तर्कों से पहले ही हमने देख लिया है।
मुनिश्री कल्याणविजयजी के मत से बलमित्र ही विक्रमादित्य है। और उनके मत से गर्दभिल्लोच्छेदक द्वितीय कालक वीरात ४५३ में हए। मगर बल मित्र यदि विक्रमादित्य है तब वह गई भिल्ल का पुत्र नहीं हो सकता। और मेरुतुङ्ग या उपरोक्त अवचूरि के बयान तब व्यर्थ प्रतीत होते हैं।
वीरात् ४५३ में गई भिल्लोच्छेदक कालक होने के सब अाधार मध्यकालीन उन्ही परम्परात्रों के हैं जिनमें कालगणना की ऐसी गड़बड़ी है। कालककथानक तो गई भिल्लोच्छेदक कालक के गुरु गुणसुन्दर या गणाकर को ही बताते हैं। वह कालक श्यामार्य ही हैं जिन्होंने प्रज्ञापनासूत्र बनाया। उपलब्ध प्रज्ञापना अगर मूल प्रज्ञापना नहीं हो, तो भी उस में मूल का संस्करण और मूल के कई अंश ज़रूर होंगे। यही प्रज्ञापना सूत्र उसके लेखक का देशदेशान्तर के लोगों का ज्ञान, भिन्न भिन्न लिपियों का ज्ञान आदि साक्षी देता है जो गर्दभिल्लोच्छेदक और सुवर्णभूमि में जानेवाले कालक में हो सकता है। प्रज्ञापनासूत्र के विषय ही उनके कर्ता निगोद-व्याख्याता होने का सूचन करते हैं।
___ विचारश्रेणि में स्थविरों के पट्टप्रतिष्ठाकाल बतानेवाली गाथायें दी हैं। वही मुनिश्री कल्याण विजयजी से उद्दिष्ट “स्थविरावली या युगप्रधानपट्टावली” है जिसकी हस्तप्रत मुनिश्री ने देखी है। वह हस्तप्रत या वह रचना विचारश्रेणि से कितनी प्राचीन है यह किसी को मालूम नहीं। विचारश्रेणि-अन्तर्गत गाथायें भी मेरुतुङ्ग से कितनी प्राचीन हैं यह कहना मुश्किल है। इस स्थविरावली की गाथाओं (पहले हम दे चुके हैं) में "रेवइमित्ते छत्तीस, अजमगु अ वीस एवं तु। चउसय सत्तरि, चउसयतिपन्ने कालगो जाओ। चउवीस अज्जधम्मे एगुणचालीस भद्दगुत्ते अ।" इत्यादि में पट्टधरों की वीरात् ४७० तक की परम्परा बताने के बाद ४५३ में कालक हुए ऐसा विधान है। पर इससे तो यह सूचित होता है कि ये द्वितीय कालक युगप्रधान नहीं हैं और न उनके आगे युगप्रधानपट्टधर (या गुरु) ग्रन्थकर्ता को मालूम हैं। इन गाथाश्रों में अगर कालक भी युगप्रधानपट्टधर हैं तब एक साथ ऐसे दो प्राचार्य युगप्रधानपट्टधर हो जाते हैं जैसा कि इस स्थविरावली का ध्वनि नहीं है। अतः यह सम्भवित है कि "चउसय तिपन्ने कालगो जात्रो" यह बात प्राचीन युगप्रधानपट्टावलियों में पीछे से बढ़ाई गई है। प्रथम शकराज्य के बारे में वास्तविक वर्षगणना बाद के लेखकों को दुर्लभ होने से और किसी तरह विक्रम के समय के नज़दीक ही कालक को और प्रथम शकराज्य को लाने के खयाल से यह वीरात् ४५३ में कालक के होने की कल्पना घुस गई होगी। उपलब्ध सब पट्टावलियों में प्राचीन हैं कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियाँ, मगर इनमें वीरात् ४५३ में रख सकें ऐसा कोई कालक का उल्लेख नहीं है। पट्टावली-समुच्चय, भाग १ में दी हुई सब अन्य पट्टावलियाँ विक्रम की तेरहवीं सदी या उसके बाद की हैं । डा० क्लाट की पट्टावलियाँ भी वि० सं० की १६ वीं शताब्दि के बाद की हैं।८९
८६. देखो, क्लाट महाशय का लेख, इन्डिअन एन्टिक्वेरि, वॉ० ११, पृ० २४५ से आगे. डा० याकोवी, डा० लॉयमान आदि के पट्टावली-विषयक लेखों की सूचि के लिए देखो, ब्राउन, ध स्टोरी ऑफ कालक, पृ०५ पादनोंध २३.
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