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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य राजा बलमित्र-भानुमित्र आदि भी शाहों के साथ हो गये (प्रस्तुत विषय में कहावली का उल्लेख-"ताहे जे गद्दहिल्लेणवमाणिया लाडरायाणो अण्णे य ते मिलिउ सव्वेहिं पि रोहिया उजेणि।"-मुनिजी के अनुमान का आधार है)। वास्तव में कहावली में लाट के राजाओं के नाम नहीं हैं। फिर भी मुनिजी का अनुमान ठीक हो सकता है। कालक सूरि की सूचनानुसार गई भिल्ल को पदच्युत करके जीवित छोड़ दिया गया और उज्जयिनी के राज्यासन पर उस शाह को बिठाया गया जिस के यहाँ कालक ठहरे थे। मुनिजी खिखते हैं--"उक्त घटना बलमित्र के राज्यकाल के ४८ वर्ष के अन्त में घटी। यह समय वीर निर्वाण का ४५३ वाँ वर्ष था। ४ वर्ष तक शकों का अधिकार रहने के बाद बलमित्र-भानुमित्र ने उजयिनी पर अधिकार कर लिया और ८ वर्ष तक वहाँ राज्य किया; भरोज में ५२ वर्ष और उजैन में ८ वर्ष, सब मिल कर ६० वर्ष तक बलमित्र-भानुमित्र ने राज्य किया। यही जैनों का बलमित्र पिछले समय में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुअा। ...बलमित्र-भानुमित्र के बाद उज्जयिनी के तख्त पर नभःसेन बैठा। नभःसेन के पांचवें वर्ष में शक लोगों ने फिर मालवा पर हल्ला किया जिसका मालव प्रजा ने बहादुरी के साथ सामना किया
और विजय पाई। इस शानदार जीत की याद में मालव प्रजा ने 'मालव-संवत्' नामक एक संवत्सर भी लाया जो बाद में विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।"७०
६६. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन कालगणना, पृ० ५४-५५ । मुनिश्री पादनोंध में लिखते हैं---मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि में दी हुई गाथा में सगस्स चउ' अर्थात् 'उज्जयिनी में शक का ४ वर्ष तक राज्य रहा' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि उज्जयिनी शकों के हाथ में चार वर्ष तक ही रही थी। कालकाचार्य-कथा की
“बल मित्त भाणुमित्ता, आसि अवंतीइ रायजुवराया।
निय भाणिज्जत्ति तया, तत्थ गओ कालगायरिओ॥" इस गाथा में और निशीथचूर्णि के-"कालगायरिओ विहरंतो उज्जेणि गतो। तत्थ वासावासं ठितो। तत्थ णगरीए बलमित्तो राया, तस्स कनिट्ठो माया भाणुमित्तो जुवराया xxxx"-इस उल्लेख में बलमित्र को उज्जयिनी का राजा लिखा है। इस से यह निश्चित होता है कि......उज्जयिनी को सर करने के बाद उन्होंने (आर्य कालक ने) वहाँ के तख्त पर शक मंडलिक को बिठाया था पर बाद में उसकी शक्ति कम हो गई थी, शक मंडलिक और उस जाति के अन्य अधिकारी पुरुषों ने अवंति के तख्तनशीन शक राजा का पक्ष छोड दिया था।" इसी के समर्थन में मुनिजी व्यवहारचूार्ण का अवतरण देते हैं :
" यदा कालएण सगा आणीता सो सगराया उज्जेणीए रायहाणीए तस्संगणिज्जगा 'श्रमं जातीए सरितो 'त्ति काउं गन्वेणं तं रायं ण सुट सेवंति। राया तेसिं वित्ति ण देति। अवित्तीया तेरणं आढतं काउं ते णाउं बहुजणेण विएणविएण ते णिव्विसता कता, ते अण्णं रायं श्रोलग्गणटठाए उवगता।" इस से मुनिजी का अनुमान है कि यह शकराजा कुछ समय के बाद हठा दिया गया होगा।
७०. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन कालगणना, पृ० ५५-५६ । मुनिजी इसी निबन्ध में पृ० ५८ पादोंध ४२ में लिखते हैं :-- विचारश्रेणि आदि में जो संशोधित गाथाएँ हैं उनमें इसका (नभ:सेन का) नाम 'नवाहन' लिखा है जो गलत है। तित्थोगाली में बल मित्र-भानुमित्र के बाद उज्जयिनी का राजा नभःसेन लिखा है। 'नवाहन' जिसके नामान्तर नरवाहन' और 'दधिवाहन' भी मिलते हैं, भरोच का राजा था। सिक्कों पर इस का नाम 'नहपान' भी मिलता है। प्रतिष्ठान के सातवाहन ने इस के ऊपर अनेक बार चढ़ाइयाँ की थीं।" विचारश्रेणि अन्तर्गत गाथायें निम्नोल्लिखित हैं
जं रयाणं कालगो अरिहा तित्थङ्करो महावीरो। तं रयणिमवंतीई अहिसित्तो पालगो राया।
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