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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
३१ - बलमित्र-भानुमित्र कहीं भरोच के और कहीं उज्जयिनी के राजे कहे गए हैं। मुनिश्री कल्याण विजयजी के मत से उसका कारण यही है कि वे पहले भरोच के राजा थे पर शक को हरा कर वे उज्जयिनी या अवन्ति के भी राजा बने थे। इस विषय में जो हकीकत कथानक अादि से उपलब्ध है वह हमें देखनी चाहिये--निशीथचूर्णि में गईभिल्लोच्छेदवाली घटना वर्णित है मगर बाद की राज्यव्यवस्था का उल्लेख नहीं है। चतुर्थीकरणवाली घटना भी इसी चूर्णि में है, वहाँ लिखा है-“कालगायरिश्रो विहरंतो उज्जेणिं गतो। ...तत्थ य नगरीए बलमित्तो राया।" ७१ दशाचूर्णि में भी चतुर्थीकरण वाली घटना में "उज्जेणीए नगरीए बलमेत्त-भाणुमेत्ता रायाणो" ऐसा कहा है।७२ कहावली में गईभिल्लोच्छेद के बाद की व्यवस्था का निर्देश नहीं है। किन्तु चतुर्थीकरणवाले कथानक में कहावलीकार लिखते हैं--"साहिप्पमुहराणएहिं चाहि सित्तो उज्जेणीए कालगसूरिभाणेज्जो बलमित्तो नाम राया।"७३ इस तरह बलमित्र के उज्जयिनी के राजा होने के बारे में प्राचीन साक्षी अवश्य है किन्तु कई कथानकों में चतुर्थीकरणवाली घटना के वर्णन में बलमित्र को " भन्अच्छ” (भरोंच) में राज्य करता बतलाया है।७४ कालक-परक सभी कथानकों में
सट्ठी पालगरन्नो पणवन्नसयं तु होइ नन्दाणं । अट्ठसयं मुरियाणं तीसच्चिय पूसमित्तस्स ॥ बलमित्त-भाणुमित्ताण सछि वरिसाणि चत्त नहवहणे। तह गद्दभिल्लरज्जं तेरस वासे सगस्स चऊ।
(जैन साहित्य संशोधक, खण्ड २ अङ्क ४ परिशिष्ट पृ०२) वास्तव में यहाँ आखरी गाथा विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि बलमित्र भानुमित्र के ६० वर्ष, नहवाहन (या नभःसेन) के ४० वर्ष, बाद में गईभिल्ल के १३ वर्ष, और शक के राज्य के ४ वर्ष कहे हैं गये हैं और यह निर्विवाद है कि गर्दभिलोच्छेदक चतुर्थीकारक आर्य कालक बलमित्र के समकालीन थे।
७१. नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० २, निशीथचूर्णि, दशम उद्देश. ७२. नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, संदर्भ ६, पृ० ५. ७३. वही, प्राकृतकथाविभाग, कथा नं. ३, पृ० ३७.
७४. वही, पृ० १४, देवचन्द्रसूरिविरचितकथा (रचना संवत् ११४६ = ई० स० १०८६ ) में; वही, पृ० ३१, मलधारी श्री हेमचन्द्रविरचित कथा ( रचना वि० सं० १२ शताब्दि ) में; वही, पृ० ४५, अशातसूरिविरचित कथा में, वही, पृ० ७०, अशातसूरिविरचित अन्य कथा में; वही, पृ० ८७ श्री भावदेवसूरिरचित कथा ( रचना संवत् १३१२ = ई० स० १२५५ ) में,--इत्यादि कथानकों में बलमित्र को भरुकच्छ का राजा बतलाया है।
किन्तु, जयानन्दसूरि-विरचित प्राकृत कथा ( रचना अनुमान से वि० सं० १४१० आसपास ) में बलमित्रभानुमित्र को अवन्ति के राजा और युवराज बताये हैं। इसी कथानक में गईभिल्लोच्छेद के बाद शक को राजा बनाया इतना ही उलेख है। नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० १०७.
वही, पृ० ५५, श्री धर्मघोषसूरि ( वि० सं० १३००-१३५७ आसपास ) लिखते हैं कि जिस शक राजा के पास आये कालक रहे थे उसको कालकाचार्य ने अवन्ति का राजा बनाया और दूसरे शक उस राजा के सेवक बने किन्तु धर्मघोषसरि लिखते हैं कि दूसरी परम्परा के अनुसार ये सब सेवक कालक के भागिनेय के सेवक बने
जप्पासे सूरिठिओ सऽवंतिपहु आसि सेवगा सेसा। अन्ने भणंति गुरुणो भाणिज्जा सेविया तेहिं ॥ ४३ ॥ जं भणिो निवपुरओ, स गओ ते हिं सह सूरिणो अ सगो। सगकूल आगयात्त य, सगुत्ति तो आसि तव्वंसो ॥ ४४ ।।
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७४॥
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