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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य २६ होंगे ऐसा खयाल पण्डित लालचन्द्र गान्धी का है । इन मेरुतुङ्ग का समय विक्रम संवत् १४०३ से १४७१ के बीच में है। .७ इन्हीं के आधार से श्रार्य श्याम का समय निर्णीत करना ठीक न होगा । किन्तु सब जैनाचार्य प्रथम कालक या श्यामार्य का समय यही बतलाते हैं। दुष्षमाकाल श्री श्रमणसङ्घस्तोत्र और उसकी वरि के अनुसार प्रथम कालक का यही समय है । ६८ नन्दीसूत्रान्तर्गत स्थविरावली के अनुसार श्यामार्य और स्थविर श्रार्य सुहस्ति के बीच में बलिस्सह और स्वाति हुए। मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि अन्तर्गत स्थविरावली-गाथानुसार सुहस्ति के बाद गुणसुंदर ४४ वर्ष तक और श्रार्यकालक ४१ वर्ष तक पट्टधर रहे । (प्रथम) कालक या श्यामार्य के समय के विषय में तो प्राचीन अर्वाचीन सभी पण्डितों का ख्याल एक-सा है - इनका युगप्रधानपद वीर- निर्वाण संवत् ३३५ में और स्वर्गवास वी० नि० सं० ३७६ में। अत्र जैन परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण का समय है विक्रम संवत् से ४७० वर्ष पूर्व, अतः ई० स० पूर्व ५२७ होगा। इस हिसाब से श्यामार्य का युगप्रधानत्व होगा ई० स० पूर्व १६२ से १५१ तक । डा० याकोबी के मतानुसार अगर वीर निर्वाण ई० स० पूर्व ४६७ में हुआ, तो श्यामार्य का समय होगा ई० स० पूर्व १३२ से ६१ तक । उपर्युक्त दोनों समय में से कौनसा ग्राह्य है यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते, क्योंकि वीर निर्वाण के समय के विषय में विद्वानों में मतभेद है । किन्तु दोनों में से कोई भी समय ग्राह्य हो, पर उससे श्रार्य कालक का सुवर्णभूमि जाना असम्भव नहीं है । हम देख चुके हैं कि ई० स० पूर्व प्रथम-द्वितीय शताब्दि में भारत सुवर्णभूमि से सुपरिचित था । १५१ हमने यह भी जान लिया है कि घटना १ से ७ एक ही कालक के जीवन की होनी चाहिये। तब गर्दभ राजा के उच्छेदकार्य कालक का समय भी ई० स० पूर्व १६२ से तक या ई० स० पूर्व १३२ से ६१ तक हो जाता है । शङ्का होगी कि यह कैसे हो सकता है ? जब कि गर्दभ - राजा के उच्छेदक कालक के कथानक का सम्बन्ध है विक्रम के साथ और उस विक्रम और शकों के पुनर्राज्यस्थापन (शक संवत्) के बीच में १३५ वर्ष का अन्तर जैन परम्परा को भी मंजूर है। किन्तु यहाँ देखने का यह है कि कालक - कथानक का सम्बन्ध है शकों के प्रथम श्रागमन और राज्यस्थापन के साथ न कि ई० स० ७८ में जिन्होंने शक संवत् चलाया उन शकों के साथ। मुनि कल्याणविजयजी ने जैन परम्पराओं को लेकर कालक, गर्दभ, विक्रम आदि के समय निर्णय का जो प्रयत्न किया है वह देखना चाहिये। उन्होंने अपना "वीर निर्वाणसम्बत् और जैन कालगणना " नामक ग्रन्थ में इस विषय की चर्चा में कहा है कि पुष्यमित्र शुङ्ग के राज्य के ३५ वें वर्ष के लगभग ( जो शायद था उसके राज्य का आखरी वर्ष ) “लाट देश की राजधानी भरुकच्छ (भरोच) में बलमित्र का राज्याभिषेक हुआ। बलमित्र - भानुमित्र के राज्य के ४७ वें वर्ष के आसपास उज्जयिनी में एक अनिष्ट घटना हो गई। वहाँ के गर्छभिल्लवंशीय राजा दर्पण ने कालकसूरि नाम के जैनाचार्य की बहन सरस्वती साध्वी को जबरन् पड़दे में डाल दिया । " इसके बाद कालक के पारसकूल जा कर शकों को भारत में लानेवाली निशीथचूर्णि और कहावली में पाई जाती हकीकत दे कर मुनिजी बतलाते हैं कि लाट देश के ६७. पीटरसन, रिपोर्ट, वॉल्युम ४, पृ० xcviii। अगर प्रबन्धचिन्तामणिकार और विचारश्रोणिकार एक हों तब इनका समय वि० सं० १३६६ 1 ६८. पट्टावली - समुच्चय, भाग १, पृ० १६-१७. विशेष चर्चा के लिए देखो, ब्राउन, ध स्टोरी ऑफ कालक, पृ० ५–६, और पादनोंध २३ - ३३; और द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ६४-११६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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