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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य सिरिवीराअो गएसु पणतीससहिएसु तिसय (३३५) वरिसेसु । पढमो कालगसूरी, जानो सामज्जनामुत्ति ।। ५५ ॥ चउसय तिपन्न (४५३) वरिसे कालगगुरुणा सरस्सइ गहिश्रा। चउसयसत्तरि वरिसे वीराश्रो विक्कमो जानो ॥ ५६ ॥ पंचेव वरिससए, सिद्धसेणो दिवायरो जाओ। सत्तसयवीस (७२०) अहिए कालिगगुरू सक्कसंथुणिो ॥५७ ।। नवसयतेणउएहिं (६६३), समइक्कंतेहि वद्धमाणाश्रो।
पज्जोसवणचउत्थी, कालिकसूरी हिंतो ठविश्रा ।। ५८ ॥६५ कालकाचार्य-कथानकों में कालक के गुरु का नाम गुणाकर, या गुणसुन्दर, या गुणन्धर मिलता है। देवचन्द्रसूरि आदि रचित सर्व कालककथानकों के नायक वही आर्य कालक थे जिनके गुरु गुणाकर, गुणसुन्दर श्रादि नामों से उद्दिष्ट थे। और जब आर्य श्याम को प्रथम कालक मानने में कोई विरोध नहीं है और जब इन्ही कालक के गुरु या पुरोगामी पट्टधर स्थविर आर्य गुणसुन्दर थे, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि कालक-कथानकों में उहिष्ट (सर्व घटनात्रों के नायक) आर्य कालक श्यामार्य ही हैं। किसी कथाकार ने ऐसा नहीं बतलाया कि भिन्न भिन्न घटनात्रों के नायक भिन्न भिन्न कालक थे। सर्व कथानकों में प्रथम कालक के जन्म, दीक्षा गुरु आदि के निर्देश के बाद घटनात्रों के वर्णन क्रमशः दिये गये हैं। अतः यह निश्चित है कि कथानकों में वर्णित घटनात्रों के नायक यह कालक हैं जो स्थविर आर्य गुणसुन्दर के अनुगामी थे और जिनको स्थविर
आर्य श्याम नाम से थेरावलियों में वन्दना की गई है। सर्व थेरावलियों में श्यामार्य का क्रम या समय एक ही है। एक नाम के एक से ज्यादा प्राचार्य होना सम्भवित है और ऐसे कई दृष्टान्त जैन धर्म के इतिहास में मौजूद हैं। कालक नाम के भी दूसरे आचार्य हुए होंगे, किन्तु यह स्पष्ट है कि कथानकों के नायक प्रथम कालक ही थे। इन प्रथम कालक-आर्य श्याम का समय रत्नसञ्चय प्रकरण की उपर्युक्त गाथा के अनुसार वीरात् ३३५ वर्ष है। मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि के परिशिष्ट में एक गाथा है
सिरिवीरजिणिंदाश्रो, वरिससया तिन्निवीस (३२०) अहियानो।
कालयसूरी जाअो, सक्को पडिबोहिश्रो जेण ।। यह गाथा भी श्यामार्य को कालक मानती है मगर उनका समय वीरात् ३२० बताती है। मुनिश्री कल्याणविजय लिखते हैं-" मालूम होता है, इस गाथा का श्राशय कालकसूरि के दीक्षा समय का निरूपण करने का होगा।” ६६ यह मेरुतुङ्ग शायद अञ्चलगच्छ के हैं और प्रबन्धचिन्तामणि के कर्ता मेरुतुङ्ग से भिन्न
६५. वीर-निर्वाण-सम्बत् और जैन-काल-गणना, पृ० ६५, पादनोंध ४६. यह स्पष्ट है कि रत्नसञ्चयप्रकरण की चार कालकविषयक मान्यता गलत है । चतुथीं तिथि को प!षणापर्व मनाने की हकीकत वीरात् ६६३ वर्ष में हुए कालक के साथ नहीं जोड़ी जा सकती, क्यों कि पर्युषणापर्व तिथि चतुर्थी को मनानेवाले कालक सातवाहन राजा के समय में हुए थे।
चार कालक की कल्पना का निरसन मुनिश्री कल्याणविजयजी ने आर्य-कालक नामक लेख में किया है, देखो द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ६४-११७ ।
६६. वीर-निर्वाण सम्बत् और जैनकालगणना, पृ० ६४, पादनोंध ४६ । मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि, तदन्तर्गत स्थविरावली इत्यादि के बारे में जर्नल ऑफ ध बॉम्बे ब्रान्च ऑफ ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, भाग : (१८६७-७०) में डॉ० भाउ दाजी का विवेचन भी देखिये।
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