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चम्पूयुग कवि गुणवर्म ने भी 'इष्टशिष्टकल्पकुंज' के रूप में शांतिवर्म की स्तुति की है। कार्तवीर्य ई० सन् १२०२ से १२२० तक शासन करता रहा था। इसकी सभा में ही शांतिवर्म ने कवि गुणवर्म को पुष्पदंतपुराण की रचना के लिए प्रेरणा दी थी। यह बात पुष्पदंतपुराण से भी सिद्ध होती है। __कार्तवीर्य कुंतलदेशस्थ कूडि में राज्य करता रहा । अतः कवि का जन्मस्थल भी कूडि ही रहा होगा। ऊपर कहा जा चुका है कि गुणवर्म के पूज्य गुरु मुनिचन्द्रदेव थे। कवि ने स्वयं अपनी रचना में भी स्वीकार किया है कि मैं इनकी कृपा से ही कविता बनाने में समर्थ हुआ हूँ। गुणवर्म को कवि तिलक, सरस्वतीकर्णपूर, सहजकविसरोवरहस, प्रभुगुणाब्जिनीकलहंस, गुणरत्नभूषण, भव्यरत्नाकर, मानमेरु तथा काव्यसत्कलार्णवमृगलांछन आदि अनेक उपाधियां प्राप्त थीं।
कवि गुणवर्म ने पूर्व कवियों में गुणवर्म ( प्रथम ), पंप, पोन्न, रन्न, अग्गल, नागवर्म, नेमिचन्द्र, जन्न तथा नागचन्द्र का सादर स्मरण किया है। विविधकलाभिज्ञ, कविताचतुर, सुविवेकनिधान, नृपज तिमहित आदि विशेषणों के द्वारा इन्होंने स्वयं अपने गुणों का बखान किया है। आत्मप्रशंसा की इन बातों को एक ओर रखने पर भी इतना तो अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि गुणवर्म एक प्रौढ़ कवि थे और इनकी रचनायें पठनीय हैं।
पुष्पदंतपुराण चम्पूकाव्य है। इसमें १४ आश्वास हैं। इसकी कुल पद्य संख्या १३६५ है । इसमें ९वें तीर्थकर पुष्पदंत की जीवनी वर्णित है । ग्रंथ का बंध ललित एवं सुंदर है । इसमें जहां-तहां कर्णाटक में प्रचलित लोकोक्तियाँ भी सम्मिलित कर दी गयी हैं । इनकी रचनाओं में काव्य के रसास्वादन के बाधक और पंप आदि महाकवियों से परित्यक्त वृत्यनुप्रास, यमकादि शब्दालंकार भी पाये जाते हैं, जिन्हें अलंकारशास्त्रियों ने दूषित माना है। कवि ने इस बात का पूर्णरूप से ध्यान रखा है कि ध्वनि काव्य का प्राण होती है । शास्त्रीय तथा संस्कृत साहित्य में प्रचुर परिमाण में पाये जानेवाले 'काकतालीय' आदि अनेक न्याय भी पुष्पदंतपुराण में पाये जाते हैं।
इस पुराण का कथा भाग अन्य पुराणों के कथा भाग की तरह अनेक जन्मान्तर की कथाओं के कारण पाठक में अरुचि उत्पन्न नहीं करता है। इसका कथा भाग बहुत ही संक्षिप्त है। ऐसी संक्षिप्त कथा को बढ़ाकर १४ आश्वासों में परिवर्तित कर देना भी एक असाधारण कार्य है, इससे कवि की
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