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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास
मदद करते रहते थे । कवि का कथन है कि "मैंने अपने हाथों को कभी दूसरों के सामने नहीं पसारा है बल्कि बराबर दूसरों को दिया है" (अनंतनाथपुराण, आश्वास १४, पद्य ८० ) । जन्न ने गण्डरादित्य के राज्य में अनंतनाथतीर्थंकर का भव्य मंदिर और द्वारसमुद्र में विजयपार्श्व जिनेश्वर के जिनालय का द्वार
बनवाया था।
इसमें सन्देह नहीं है कि कवि जन्न का सारा जीवन साहित्य तथा धर्मसेवा में व्यतीत हुआ है । इनके यशोधरचरित और अनंतनाथपुराण दोनों ही जैनधर्म के प्रचारार्थ रचे गये हैं । इस बात को कवि ने स्वयं अपनी रचना में स्पष्ट कहा है । जैन कवियों का यह आदर्श रहा है कि वे अपनी बहुमूल्य काव्य प्रतिभा को महापुरुषों के पवित्र जीवनचरित्रों की रचना के द्वारा सार्थक बनाते रहे हैं ।
कवि जन्न ने अपने पूर्ववर्ती कवियों में गुणत्रर्म, पम्प, पोन्न, रन्न, नागचन्द्र आदि प्रसिद्ध सभी जैन कवियों का स्मरण किया है । दूसरी ओर परवर्ती अण्डय्य, कमलभव, मल्लिकार्जुन, कुमुदेन्दु, मंगरस आदि मान्य कवियों ने जन्न की स्तुति की है । जन्न के यशोधरचरित में गद्य नहीं है, केवलवृत्त हैं । शेष सभी कन्द पद्य हैं । यह सुन्दर काव्य चार अवतारों में विभक्त है । इसमें कुल ३११ कन्द पद्य हैं । प्रस्तुत काव्य में कवि ने पंच अणुव्रतों में अन्यतम एवं प्रमुख अहिंसाणुव्रत की महिमा को बड़े ही आकर्षक ढंग से समझाया है । राजा मारिदत्त के द्वारा अपनी कुलदेवी को बलि देने हेतु लाये गये मनुष्य युगल के द्वारा कही गयी जन्मान्तर कथाओं को सुनकर राजा स्वयं हिंसा को सर्वथा त्यागकर संसार से विरक्त हो जाता है । यही इस काव्य का कथासार है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में एतद्विषयक कई ग्रंथ हैं; जैसे, यशस्तिलकचम्पू, यशोधरकाव्य, जसहरचरिउ आदि । इनमें यशस्तिलकचम्पू एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है । इसके रचयिता राजनीति शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य सोमदेवसूरि हैं ।
कवि ने काव्यारंभ में कुन्दकुन्द, समंतभद्र, पूज्यपाद आदि आचार्यों के स्मरण के साथ-साथ सल, विनयादित्य, यरेयंग आदि होयसल वंश की परम्परा का विस्तार से वर्णन किया है और अपने आश्रयदाता वीरबल्लाल की विशेष रूप से प्रशंसा की है । आर० नरसिंहाचार्य के शब्दों में इसका बंध ललित, मधुर, गंभीर और हृदयंगम है । कवि मधुर के द्वारा जन्न को कर्णाटककविता का सीमा पुरुष कहा जाना सर्वथा समुचित है । निरर्गल रूप से प्रवाहित
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