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चम्पूयुग
... ७१ वीरनरसिंह को उनकी ओर आकृष्ट किया था। इसमें संदेह नहीं है कि कवि का प्रभाव पहले जनता में और बाद में राजसभा में पहुँचा होगा।
यद्यपि जन्न सभी कलाओं में प्रवीण थे परन्तु उन्हें काव्यकला में विशेष रुचि थी। बाल्यावस्था से ही सरस्वती उनपर मुग्ध हो गयी थीं। इसका स्पष्ट प्रमाण कवि द्वारा रचित चेन्नरायपट्टण (शक संवत् १११२-ई० सन् ११९१-नं. १७९) तथा तरीकेरे (शक संवत् १११९ ई०-सन् ११९७, नं० ४५) के शिलालेख हैं । इस प्रकार बाल्यावस्था में ही अंकुरित कवि की कवित्वशक्ति उनके अविरत प्रयासों से यथाशीघ्र लता बन गई, जिसमें यशोधयन्ति तथा अनंतनाथपुराण जैसे दो मनोहर सुगंधित पुष्प विकसित हुए और जिनकी गंध से रसिक एवं भावुक साहित्यिक आकर्षित हुए। केवल भावुक साहित्यिक ही नहीं, स्वयं राजा वीरबल्लाल भी उपयुक्त काव्यों की रसानुभूति से अपने को वंचित नहीं रख सका। सहृदय गुणग्राही राजा वीरबल्लाल ने जन्न की कविता से मुग्ध होकर उन्हें कविचक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की (अनंतपुराण, माश्वास १, पद्य २५)।
कवि ने यशोधरचरित की रचना वीरबल्लाल (ई. सन् ११७३--१२२०) के शासनकाल में शुक्ल संवत्सर अर्थात् ई० सन् १२०९ में तथा अनंतनाथपुराण की रचना वीरबल्लाल के पुत्र वीरनरसिंह (ई० सन् १२२०--१२३५) के राज्यकाल में विकृत संवत्सर अर्थात् ई० सन् १२३० में की थी (अनंतनाथ. पुराण, आश्वास १४, पद्य ८४)। जन्न साहित्यरत्नाकर, कविभाललोचन; कविचक्रवर्ती, विनेयजनमुखतिलक, राजविद्वत्सभाकलहंस, कविवृन्दारकवासव, कविकल्पलतामन्दार आदि उच्च उपाधियों से विभूषित हैं ।
कवि जन्न को लौकिक विद्या में जितनी रुचि थी, उतनी ही अध्यात्मविद्या में भी थी। इसकी पूर्ति हेतु वह उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् माधवचन्द्र त्रविद्य के शिष्य गण्डविमुक्त, मुनि रामचन्द्र के चरणों में पहुँचे । वहाँ पर जैनधर्म के तत्त्वों का अच्छी तरह अध्ययन कर उन्होंने अपने अगाध पाण्डित्य का सदुपयोग जैनधर्म के पुनरुद्धार के लिए किया । वस्तुतः जन्न की धन-सम्पदा, बुद्धि-कौशल एवं कवित्व-शक्ति जैन-धर्म के प्रचारार्थ ही समर्पित थी।
लोक में सामान्यतया लक्ष्मी और सरस्वती में परस्पर असहिष्णुता देखी जाती है, इसलिए विद्वान् प्रायः निर्धन होते हैं । परन्तु कवि जन्न वैभव संपन्न थे । इन्होंने 'सौभाग्यसंपन्न' आदि शब्दों का प्रयोग करके अपनी रचनाओं में स्वयं इस बात को व्यक्त किया है । जन्न बड़े उदार थे तथा सदा गरीबों की
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