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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास
राजकुमार कंदर्पदेव स्वप्न में किसी सुन्दरी को देखता है और उसकी खोज में अपने साथी मकरंद के साथ निकल पड़ता है। स्वप्न में गोचर हुई वह सुन्दरी कुसुमपुर के नरेश शृंगारशेखर की कन्या लीलावति थी। लीलावति भी स्वप्न देखती है और प्रिय कन्दर्पदेव के अन्वेषण में दूत भेजती है। कई विघ्न बाधाएं पार करने के बाद नायक-नायिका का मिलन होता है। शृंगार के चित्रण में कवि ने कई नई उद्भावनाएं की हैं और कथाप्रवाह को रोचक बनाया है। 'स्त्रीरूप ही रूप है, शृंगार ही रस है' यह नेमिचन्द्र की मान्यता थी । यह रचना एक वर्ष में पूरी हुई।
बाहुबलि (ई० सन् १५००) के नागकुमारचरित, दोड्डय्य (ई. सन् १५५० ) के चन्द्रप्रभ चरित और देवचन्द्र ( ई० सन् १८३८) की राजावलीकथा में लीलावति की बड़ी प्रशंसा की गई है। जिस प्रकार कन्नड साहित्य को नागवर्म के द्वारा कादंबरी जैसी सुन्दर कृति मिली है, उसी प्रकार नेमिचन्द्र द्वारा लीलावति जैसी रचना प्राप्त हुई। लीलावति की कथा छोटी है। यह शृंगाररसप्रधान रचना है। उद्दीपन के लिए कृति में सर्वत्र चित्ताकर्षक वर्णन भरे पड़े हैं इसमें कंदर्प और लीलावती का पात्रचित्रण बहुत ही सुन्दर हुआ है। _नेमिनाथपुराण नेमिचन्द्र की प्रसिद्ध रचना है। इसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र के साथ-साथ वसुदेव, अच्युत, कंदर्प आदि के चरित्र के समावेश का संकल्प तो कवि ने किया था, परन्तु कंसवध के प्रकरण के बाद काव्य समाप्त हो गया है। काव्य अधूरा होने के कारण ही इसका नाम अर्ध नेमिपुराण पड़ गया है। कवि ने कृष्ण की कथा के चित्रण में काव्य रसायन की सृष्टि ही कर डाली है। त्रिविक्रम वेषधारी वामन का विराट रूपचित्रण, गोवर्धनलीला का प्रसंग और मल्लयुद्ध जैसे प्रसंग बड़े सरस बन पड़े हैं। कवि की वर्णनशैली अपूर्व है। इसी विषयवस्तु को लेकर इसके पूर्व कर्णपार्य ने चम्पू में और चाउण्ड राय ने गद्य में काव्यरचना की है। नेमिचन्द्र ने इन दो पुराणों के अतिरिक्त उत्तरपुराण का भी अनुसरण किया है। काव्यदृष्टि से उपर्युक्त दो कन्नड पुराणों की अपेक्षा नेमिनाथपुराण श्रेष्ठ है। इसमें नेमिचन्द्र का पात्ररचनाकौशल निखरा है।
कवि नेमिचन्द्र संस्कृत के भी अच्छे विद्वान् थे। इनकी चतुर्भाषा कवि चक्रवर्ती की उपाधि से ज्ञात होता है कि नेमिचन्द्र कन्नड के ही नहीं, अपितु संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा के भी ज्ञाता कवि थे। कवि ने स्वयं को
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