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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास पाया जाता है । अतः तगडूर का यह शिलालेख ई० सन् ११११ से ११४१ के मध्य अर्थात् ११३० में लिखा गया था, यह मानना उचित ही है।
कवि कर्णपार्य ने अपने गुरु कल्याणकीर्ति की बड़ी प्रशंसा की है । इससे सिद्ध होता है कि मुनि कल्याणकीर्ति वस्तुतः एक असाधारण व्यक्ति थे । वे चरित्र से ही नहीं, किन्तु ज्ञान और गुणों से भी सम्पन्न थे। इसीलिए निखिलविद्वत्समाज उनके समक्ष नतमस्तक था। चारों ओर उनकी निर्मल कीर्ति फैली हुई थी । अमल, स्वच्छ तथा अनिन्द्य विशेषण ही उनकी उज्ज्वलता को व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि कर्णपार्य ने मुनि कल्याणकीर्ति को नेमिनाथपुराण के प्रत्येक आश्वास के अंतिम पद्य में 'साश्चर्यचारित्र चक्रवर्ती' के रूप में सादर स्मरण किया है। इसीलिए तो ये 'सद्भव्यसंसे व्य' माने गये थे। श्रवणबेळगोळ के शिलालेख में भी कल्याणकीर्ति की बड़ी प्रशंसा मिलती है। वास्तव में कर्णपार्य जैसे राजमान्य एवं लोकमान्य सुकवि के गुरु सामान्य विद्वान् कैसे हो सकते थे?
अब कवि कर्णपार्य के आश्रयदाता को लीजिए । राजा विजयादित्य का मंत्री लक्ष्म या लक्ष्मण ही कर्णपार्य का आश्रयदाता माना जाता है । कर्णपार्य ने अपने नेमिनाथपुराण में पिता गण्डरादित्य, पुत्र विजयादित्य एवं विजयादित्य की रानी पोन्नलदेवी की बड़ी प्रशंसा की है। बल्कि कवि ने पोन्नलदेवी को विविध कलाओं की प्रवीणता में सरस्वती, रूप में रति, सौंदर्य में हेमवती, दर्शनविशुद्धि में रेवती और पतिभक्ति में अरुन्धती बतलाया है। इसी प्रकार कर्णपार्य ने अपने आश्रयदाता लक्ष्मण की भी बहुत प्रशंसा की है। इसी प्रसंग में कवि कर्णपार्य ने लक्ष्मण के अनुज वर्धमान और शांत तथा शांत के पिता गोवर्धन या गोपण का भी उल्लेख किया है। इस उल्लेख में कवि ने वर्धमान को अखिलाशावर्तितकीर्ति, मकरध्वजमूर्ति और उर्वीनुत गुणविधान और शांत को अखिलविद्याकांत उर्वीजनसेव्य आदि विशेषणों के साथ स्मरण किया है। शान्त के श्रद्धेय पिता गोपण को कवि ने दर्शन प्रतिभा से लेकर परिग्रहत्याग तक की प्रतिमाओं को पालनेवाला श्रावकोत्तम बतलाया है । इसी प्रकार ग्रंथांत में अपने आराध्य देव नेमिनाथ के साथ-साथ उसने लक्ष्मण के अनुज वर्धमान और शांत और शांत के पूज्य पिता गोपण की भी प्रशंसा की है। यद्यपि ग्रंथारम्भ में लक्ष्मण की पत्नी के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है किंतु यहाँ पर उसकी काफी प्रशंसा की गई है । उसे जिन पूजा में शची, चतुर्विध दान में अत्तिमब्बे और जिनभक्ति में शांतलादेवी बताया
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