________________
५१
यंपयुग चार्य के मत से कर्णपार्य का काल ई० सन् ११४०, डा० वेंकटसुब्बय्य और एम० गोविन्द पै के अनुसार ई. सन् १९७४ और एच० शेषअय्यंगार के मत से ई० सन् १९३० से ११३५ है। कुछ भी हो, यह सर्वसम्मत है कि कर्णपार्य १२वीं शताब्दी के कवि हैं।
नेमिनाथपुराण के रचयिता कर्णपार्य के श्रद्धेय गुरु मलधारी देव के शिष्य कल्याणकीर्ति हैं। श्री एच. शेषअय्यंगार के मत से श्रवणबेळगोळस्थ शिलालेख संख्या ६९ में अंकित मलधारी हेमचन्द्र के अथवा इनके सधर्मा माधनंदि के शिष्य कल्याणकीति ही कर्णपार्य के गुरु हैं। गुरु कल्याणकीर्ति के बाद कर्णपार्य के द्वारा संस्तुत बालचन्द्र, शुभचन्द्र आदि कल्याणकीर्ति के ही सधर्मा मालूम होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त अभिलेख में मूलसंघ के देशीयगण की वक्रगच्छीय शाखा बालचन्द्र के साथ-साथ शुभकीर्ति आदि और भी कई व्यक्ति मलदेव के सधर्मा कहे गये हैं। यद्यपि पूर्वोक्त शिलालेख में उसके लेखनकाल और उसमें वर्णित गुरुपरम्परा का काल नहीं दिया गया है।
आर० नरसिंहाचार्य ने चनरायपट्टण के १६८वें शिलालेख के आधार पर गोपनंदि के शिष्य मलधारी देव और उनके सधर्मा कल्याणकीति के नामोल्लेख करनेवाले श्रवणबेळगोळ के उपर्युक्त शिलालेख का काल ई० सन् ११०. निर्धारित किया है। उनका कहना है कि श्रवणबेळगोळ के वक्त शिलालेख में प्रतिपादित मलधारी देव के गुरु गोपनन्दि को ई० सन् १०९४ में विक्रमादित्य के पुत्र यरयंग द्वारा एक दान किया गया था। इसीलिए शिलालेखान्तर्गत गोपनंदि, उनके शिष्य मलधारी देव और तत्सधर्मा कल्यागकीर्ति का काल ई० सन् ११०० होना चाहिए ।
परन्तु श्री एच० शेष अय्यंगार श्री आर० नरसिंहाचार्य के इस मत से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि विक्रमादित्य के पुत्र यरयंग से दान ग्रहण करने वाले गोपनंदि से उनके शिष्य मलधारी देव का काल बिना प्रबल आधार के केवल ६ वर्ष पीछे निर्धारित करना ठीक नहीं कहा जा सकता। बल्कि चन्नरायपट्टण तालुक तगडूर के नं० १९८ ( ई० सन् ११३० ) के शिलालेख में प्रतिपादित कल्याणकोति और श्रवणबेळगोळ के शिलालेख में अंकित कर्णपार्य के गुरु कल्याणकीर्ति ये दोनों एक ही हैं। ऐसी अवस्था में कल्याणकीर्ति का काल ई० सन् ११३० के बाद ही मानना समुचित है । बल्कि तगडूर के उपर्युक्त शिलालेख में ई० सन् ११११ से ११४१ तक राज्य करनेवाले होयसल विष्णुवर्धन के पादपद्मोपजीवी दंडनायक मरियाने एवं भरत का उल्लेख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org