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________________ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास कोई रोक नहीं सकता। इसलिए सर्वप्रथम ब्रह्मशिवकालीन वातावरण का अध्ययन करना बहुत ही आवश्यक है। वस्तुतः यह युग खण्डन-मण्डन का युग 'था। कर्णाटक में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश में खण्डन-मण्डन की प्रवृत्तियाँ चल रही थी अतः अन्य मतों का खण्डन करके ब्रह्मशिव ने कोई अनुचित काम नहीं किया। पुनः कोई भी धर्म अपनी सत्ता को तब ही कायम रख सकता है जब कि वह देश के तत्कालीन वातावरण के अनुकूल अपने बाह्यरूप में कुछन-कुछ परिवर्तन स्वीकार करेगा। इसके लिए धार्मिक इतिहास में एक-दो नहीं सैकड़ों दृष्टान्त देखने को मिलते हैं। इसी को लक्ष्य में रखकर आचार्य जिनसेन ने अपने काल में जैन धर्म के बाह्य रूप में बहुत कुछ परिवर्तन कर डाला था। इसका एकमात्र कारण देश का क्षुब्ध वातावरण ही था । वास्तव में अगर वे उस समय रूढ़िवादी बने रहते तो पता नहीं कर्णाटक में जैन धर्म की क्या स्थिति होती ? आचार्य जिनसेन ने उस समय बड़ी ही दूरदर्शिता से काम लिया, अन्यथा बड़ा अनर्थ हो जाता। जैनाचार्यों में परस्पर दिखाई देने वाले मान्यता-भेद का मूलकारण भी देश का तत्कालीन वातावरण ही है । निष्पक्ष नेतर विद्वानों की भी राय है कि समयपरीक्षा से तत्कालीन समाज की परि. स्थिति का बोध होता है। ब्रह्मशिव की दूसरी कृति त्रैलोक्यचूडामणिस्तोत्र है। इसमें छब्बीस (२६) वृत हैं। इसका अपरनाम छत्तीसरत्नमाला भी है। प्रत्येक पद्य त्रैलोक्य चूडामणि शब्द से समाप्त होता है। इसमें ब्रह्मशिव ने अन्य मतों की मान्यताओं का खुले शब्दों में खण्डन किया है। वैसे समालोचना कोई बुरी चीज नहीं है, फिर भी उसमें कड़े शब्दों का उपयोग न करके सौम्य शब्दों का प्रयोग आवश्यक है। किसी भी बात को कटु शब्दों की अपेक्षा मीठे शब्दों के द्वारा समझाना अधिक लाभदायी होता है । बल्कि कटु शब्दों के प्रयोग से कभी-कभी बड़ा अनर्थ भी हो जाता है। समालोचना का भी एक स्तर होना चाहिए। कर्णपायं __ इन्होंने नेमिनाथपुराण की रचना की है। कण्णप, कण्णमय्य आदि इनके कई नाम थे। कर्णपार्य को परमजिनमतक्षीरवाराशिचन्द्र, सम्यक्त्वरत्नाकर, भुवनकभूषण, गांभीर्यरत्नाकर, भव्यवनजवनमार्तण्ड आदि अनेक उपाधियां प्राप्त थीं। इन्होंने अपनी रचना में कहीं भी अपना काल नहीं बतलाया है। इसीलिए कर्णपार्य के काल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। आर. नरसिंहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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