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पंपयुग के नाम से भी होती है। त्रैलोक्य चूड़ामणिस्तोत्र के अंतिम पद्य से सिद्ध होता है कि राजसम्मान के साथ-साथ इन्हें 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि भी प्राप्त थी। ब्रह्मशिव ने अपनी समय परीक्षा का आरम्भ चालुक्य त्रैलोक्यमल्ल के पुत्र कीर्तिवर्म की स्तुति से किया है। इससे ब्रह्मशिव कीर्तिवर्म का समकालीन (ई० सन् ११२५) मालूम होता है। इनके गुरु मुनि वीरनन्दि ई. सन् १११५ में स्वर्गस्थ मेघचन्द्र-विद्य के शिष्य विदित होते हैं।
ये वीरनन्दि वे ही हैं, जिन्होंने शक संवत् १०७६ (ई. सन् ११५३) में स्वकृत आचारसार की एक कन्नड व्याख्या लिखी थी ( कन्नडकविचरिते, पृष्ठ १६८)। यद्यपि श्रवणबेळगोळ के उपर्युक्त शिलालेख में आचार्य वीरनन्दि का उल्लेख मेघचन्द्र के आत्मजात' के रूप में हुआ है, श्री आर० नरसिंहाचार्य ने अपने 'कविचरिते' में आत्मजात का अर्थ पुत्र किया है, किन्तु यहाँ पर आत्मजात शब्द का अर्थ पुत्र न करके शिष्य करना ही सर्वथा उचित है, क्योंकि मुनि अवस्था में किसी के भी साथ पुत्र, पौत्रादि पूर्व का सम्बन्ध जोड़ना सर्वथा आगमविरुद्ध है। जब वे एक बार सब कुछ त्यागकर एकान्ततः अकिंचन बन गये, उनके साथ पुत्रादि का पूर्व सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है । वस्तुतः शिष्य के पुत्रतुल्य होने के कारण आलंकारिक शब्दों में उसे आत्मजात, आत्मज, तनुज आदि कहा जाता है।
केशिराज ने अपने 'शब्दमणिदर्पण' के ७५वें सूत्र के नीचे ब्रह्मशिव के एक पद्य के अंतिम भाग को उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। कवि ने जैनमार्गनिश्चितचित्त, जिनसमयसुधार्णव-धर्मचन्द्र, जिनधर्मामृतवाधिवर्धनशशांक, तीव्रमिथ्यात्वबंधनचण्डांशु आदि शब्दों द्वारा अपने गुणों को प्रकट किया है।
समयपरीक्षा में धर्म को आप्तागमधर्म और अनाप्तागमधर्म इन दो भागों में विभक्त किया गया है। कवि ने इसमें सौर, शैव, वैष्णव आदि धर्मों को अमान्य तथा सदोष ठहराकर जैन धर्म को सर्वोत्कृष्ट बतलाया है । ग्रंथ प्रारंभ से अंत तक कंद पद्यों में ही रचा गया है । यह पन्द्रह अधिकारों में विभक्त है। ग्रन्थ का बंध सरल एवं ललित है। कन्नड साहित्य के मर्मज्ञ इस प्रकार की समीक्षाग्रंथों को लिखनेवाले कन्नड कवियों में ब्रह्मशिव को प्रथम कवि मानते हैं।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति इस बात को अवश्य स्वीकार करेगा कि हर एक लेखक पर देश के तत्कालीन वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है, इसे
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