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पंपयुग कवियों के प्रिय परिसंख्या, विरोधाभास, श्लेष, अत्युक्ति आदि अलंकार नहीं मिलते हैं । कहीं भी देखें, सर्वत्र उपमा, मालोपमा, दैनंदिन अनुभव के प्रासंगिक दृश्यों का सादृश्य और लोकोक्तियाँ आदि ही उपलब्ध होती हैं। इसलिए पण्डितों को यह ग्रंथ चमत्काररहित और नीरस प्रतीत हो सकता है, परन्तु सामान्य जनता इसी तरह के ग्रंथों को अधिक पसन्द करती है। उसे चमत्कारिता और अलंकारवैचित्र्य आदि पसंद नहीं होते हैं। कन्नड शब्दों के प्रयोग में भी नयसेन ने व्याकरणसम्मत एवं पूर्वकवियों के द्वारा प्रयुक्त शुद्ध प्राचीन कन्नड को न अपनाकर अपने काल की नवीन कन्नड में ही ग्रंथ रचने की प्रतिज्ञा की है। हर्ष की बात है कि कवि ने अपनी इस प्रतिज्ञा को अंत तक निभाया है। हां, प्रतिज्ञानुसार धर्मामृत में तत्कालीन कन्नड के साथ ही साथ गद्यकालीन कन्नड भी उपलब्ध है।
जैनों के अनुयोग-चतुष्टय के अन्तर्गत प्रथमानुयोग सम्बन्धी पुराण, काव्य तथा चरित्र आदि ग्रंथों का एकमात्र आशय मानव को दुराचार से हटाकर सदाचार में लगाना है। इसलिए इस अनुयोग से सम्बन्ध रखनेवाले प्रत्येक ग्रंथ में पाठकों को हिंसा आदि दुराचार से होनेवाली हानि तथा अहिंसा आदि सदाचार से होनेवाली उपलब्धियों को सुन्दर ढंग से दर्शाया गया है। जिस प्रकरण में जिसकी प्रधानता है, उसमें उसी को प्रशंसा की गयी है। जिसकी शादी है उसका गीत' की लोकोक्ति यहाँ चरितार्थ हुई है।
इसमें सन्देह नहीं है कि महापुरुषों के चरित्रश्रवण से थोड़े समय के लिए ही सही, मन में पापभीति एवं संसार से विरक्ति अवश्य होती है। वस्तुतः मन की पवित्रता ही आत्मकल्याण की जड़ है। इसीलिए कहा गया है कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' । संपूर्ण रामायण की कथा को सुनने के बाद एक सामान्य व्यक्ति भी इतना अवश्य जान जाता है कि रावण की तरह न चलकर राम की तरह चलना चाहिए। रामायण सुनने का यही
अस्तु, नयसेन का धर्मामृत भी प्रथमानुयोग संबंधी ग्रंथ है। इसका भी उद्देश्य वही है जो प्रथमानुयोगसंबंधी और ग्रंथों का होता है। श्री आर० नरसिंहाचार्य के शब्दों में नयसेन का यह ग्रंथ मृदुमधुरपदगुंफित, नीतिश्लोकपुंजरंजित ललित कृति है। इसमें सन्देह नहीं है कि धर्मामृत के रचयिता नयसेन एक प्रौढ़ कवि हैं।
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