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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास शताब्दी के पूर्वार्ध में इस ओर लक्ष्य किया। यही कारण है कि इसका सारा श्रेय नयसेन को दिया जाता है। ___ यद्यपि जी० वेंकटसुब्बय्य की इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ कि जैनों का सारा कथा साहित्य वैदिक और बौद्ध कथा साहित्य का रूपान्तर है। इस सम्बन्ध में उनसे इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि निष्पक्ष दृष्टि से सारे जैन कथा साहित्य का एक बार बारीकी से अध्ययन कर डालें। किसी भी विषय के केवल सतही अध्ययन के आधार पर अपना मत दे देना ठीक नहीं है।
नयसेन को कन्नड में संस्कृत के दीर्घ समासों वाली पुरानी प्रौढ़ शैली का अनुकरण पसन्द नहीं था। इसीलिए इन्होंने अपने एक पद्य में ऐसे पुराने कवियों का खुले शब्दों में मजाक भी किया है। कथन है कि 'संस्कृत में लिखो या शुद्ध कन्नड में, परन्तु कन्नड में संस्कृत के दीर्घ समासों को देकर, शैली को गहन मत बनाओ। इससे तैल और घी के मिलावट की तरह दोनों में कोई भी भोगयोग्य नहीं होगा।' यद्यपि इसका अभिप्राय यह नहीं है कि नयसेन कन्नड में संस्कृत शब्दों को अपनाने का ही निषेध करते थे, उपर्युक्त पद्य में ही तैल और घृत इन संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी किया है । कहने का अभिप्राय इतना ही है कि संस्कृत के सुलभ शब्दों को कन्नड में लेने से कोई हानि नहीं है। हाँ, कठिन शब्दों के प्रयोग से कवि के आशय को जानने में जन-साधारण को बड़ी दिक्कत होती है। इसमें सन्देह नहीं है कि कोई भी ग्रंथ सुलभ शैली में लिखे जाने पर ही लोकमान्य हो सकता है ।
नयसेन कृत धर्मामृत में कुल १४ आश्वास हैं। इन आश्वासों में क्रमशः सम्यग्दर्शन, उसके आठ अंग तथा अहिंसा आदि पांच अणुव्रतों का निरतिचार अनुष्ठान करके सद्गति को प्राप्त करनेवाले महात्माओं की पवित्र कथाएँ सुन्दर ढंग से निरूपित हैं। ग्रंथ की शैली सरल स्वाभाविक है। कवि सरल शैली का ही पक्षपाती है। इसमें प्रसिद्ध वृत्त ही अधिक हैं, अप्रसिद्ध वृत्त बहुत कम हैं । इसी प्रकार इसमें कन्दों (छन्द विशेष) की भी अधिकता है। विलक्षणता इनके गद्य में ही दृष्टिगोचर होती है । कन्नड चम्पू ग्रंथों में आनेवाले गद्य अधिक मात्रा में कादम्बरी, हर्षचरित आदि की शैली के हैं। परन्तु इस शैली में और नयसेन की शैली में बहुत अन्तर है। नयसेन की शैली में खोजने पर भी प्राचीन
१. इस सम्बन्ध में 'उपायन' आदि अभिनन्दन ग्रंथों में प्रकाशित 'जैन
कथा साहित्य' शीर्षक मेरा लेख देखें।
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